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पुण्य-पाप की अवधारणा ]
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अनुसार अशुभ से सीधे शुद्ध की प्राप्ति नहीं होती वरन् अशुभ से शुभ और शुभ 'शुद्ध की प्राप्ति होती है । इस दृष्टि से भी पुण्य शुद्ध की प्राप्ति में सहायक होने से शुद्ध की प्राप्ति न होने तक उपादेय मानना उचित एवं तर्कसंगत है ।
क्या पुण्य-पाप स्वतंत्र तत्त्व हैं ?
'उत्तराध्ययन' सूत्र में नव तत्त्वों ( पदार्थों) का वर्णन है, उसमें पुण्य व पाप को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में प्ररूपित किया गया है ।' किन्तु 'तत्त्वार्थ सूत्र' में उमास्वाति ने पुण्य-पाप को छोड़ जीव, अजीव, आस्रव, संवर, बन्ध और मोक्ष इन सातों को ही तत्त्व प्ररूपित किया है । दिगम्बर जैन परम्परा में ये सात तत्त्व ही माने गए हैं । किन्तु यह मत भेद विशेष महत्त्व का नहीं है । कारण जो परम्परा पुण्य-पाप को स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानती है, वह उन्हें आस्रव के अन्तर्गत स्वीकारती है । यदि सूक्ष्म दृष्टि से चिंतन करें तो पुण्य-पाप मात्र आस्रव (आत्मा में कर्म आने का हेतु ) ही नहीं वरन् उनका बन्ध भी होता है और विपाक (फल) भी होता है । अतः आस्रव के मात्र दो विभाग - अशुभास्रव और शुभास्रव करने से उद्देश्य पूरा नहीं होता वरन् फिर प्रास्रव के बन्ध और विपाक के भी दो भेद शुभाशुभ के करने होंगे । इस वर्गीकरण और भेदाभेद की कठिनाई से बचने हेतु पुण्य-पाप को आगमों में दो स्वतंत्र तत्त्व प्ररूपित करना युक्ति एवं तर्कसंगत लगता है । अतः पुण्य-पाप को स्वतंत्र तत्त्व ही मानना उचित है ।
पुण्य-पाप बन्धन के कारण :
कर्म सिद्धान्त के अनुसार बन्धन का मूल कारण आस्रव है । प्रस्रव शब्द क्लेश या मल का बोधक है । आत्मा में क्लेश या मल ही कर्म वर्गणा के पुद्गलों को आत्मा के साथ जोड़ने में हेतु होता है । इसी कारण से जैन परम्परा में आस्रव का सामान्य अर्थ कर्म वर्गरणाओं का आत्मा में आना माना है । यह आस्रव भी दो प्रकार का है - ( i ) भावालव - श्रात्मा में विकारी भावों का आना, (ii) द्रव्यास्रव - कर्म परमाणुओं का श्रात्मा में श्राना । दोनों परस्पर कार्य-कारण सम्बन्ध से जुड़े हैं । वैसे मन, वचन एवं काया की प्रवृतियाँ ही श्रास्रव हैं । 3 आस्रव का श्रागमन योग से तथा बन्ध मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय व प्रमाद से होता है । 'तत्त्वार्थ सूत्र' में आस्रव को दो प्रकार से इस प्रकार भी कहा है
१ - उत्तरा. सू. २८ / १४ । २— तत्त्वार्थ सूत्र १/४
३- तत्त्वार्थ सूत्र ६ / १-२ ।
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