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पुण्य-पाप की अवधारणा
पुण्य-पाप का अर्थ एवं व्याख्या :
जैन दर्शन में सामान्यतः " शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य ।" " कहकर शुभ कर्म को पुण्य व अशुभ कर्म को पाप बताया है । पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करे, जिससे सुख रूपी फल की प्राप्ति हो । इसके विपरीत पाप वह है जिससे आत्मा दूषित होती हो और दुःख रूप फल की प्राप्ति हो । पुण्य से आत्मा का उत्थान होता है और वह मोक्ष मार्ग में सहायक हेतु होता है जबकि पाप आत्मा का पतन करता है और मोक्ष मार्ग में बाधक बनता है । वह एकान्त हेय है । पुण्य से इच्छित, इष्ट व अनुकूल संयोग एवं सामग्री मिलती है जबकि पाप से प्रतिकूल व अनिष्ट संयोग एवं सामग्री की प्राप्ति होती है ।
पुण्य की उपादेयता - हेयता :
आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य-पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता है । कारण दोनों ही अन्ततोगत्वा बन्धन हैं । पं. जयचन्द्रजी ने भी ऐसा ही कथन किया है ।
श्री जशकरण डागा
"पुण्य-पाप दोऊ करम बन्ध रूप दुह मानि ।
शुद्ध आत्मा जिन लड्यो, नमु चरण हित जानि ॥ 3
पुण्य निश्चय दृष्टि से हेय है । इसकी पुष्टि सुश्रावक विनयचन्दजी ने भी निम्न प्रकार की है :
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१ - तत्त्वार्थ सूत्र प्र. ६, सू. ३-४ । २ - प्रवचन सार टीका १/७२ ।
३ - समयसार टीका पृ. २०७ । ४ - विनयचन्द चौबीसी ।
"जीव, अजीव, बन्ध ये तीनों ज्ञेय पदारथ जानो । पुण्य-पाप आस्रव परिहरिये, हेय पदारथ मानो रे ॥ सुज्ञानी जीवा भजले रे, जिन इकवीसवां ||४||
".
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