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जीवन में कर्म-सिद्धान्त की उपयोगिता
- श्री कल्याणमल जैन
जीवन क्या है ?
आकाश में उड़ते हुए पंछी से एक मुसाफिर ने पूछा-"गगन बिहारी, क्या आप बता सकते हैं कि जीवन क्या है ?" पंछी ने उत्तर दिया-"भले मानुष ! यह भी पूछने की बात है । वह जो तेरे पांवों के नीचे आधार की मिट्टी है और जो मेरे सिर के ऊपर विहार का उन्मुक्त लोक है, यही तो जीवन है।" मुसाफिर यह समझकर बाग-बाग हो उठा कि वास्तव में यथार्थ और कल्पना का मेल कराने वाली यात्रा ही जीवन है।
बाल्यकाल की चंचलता, जवानी का उत्साह और वृद्धावस्था की उदासीनता का समन्वय ही जीवन है।
जिसे हम आत्मा, चैतन्य कहते हैं, उसे भगवान महावीर ने जीव कहा है। आगमों में अधिकतर जीव शब्द का ही प्रयोग मिलता है। जीव शब्द का अर्थ है-जो अनन्त काल से जीता पा रहा है और अनन्त-अनन्त अनागत काल की यात्रा के लिए जीता जा रहा है अर्थात् जो जीवित है, जीवित था और सदैव जीवित रहेगा, वह जीव है। वह अनन्त-अनन्तकाल के प्रवाहमान प्रवाह में जीता जा रहा है। जीवन की कोई सीमा नहीं, अतः उसका मरण भी नहीं। मरण जन्म के साथ-साथ चलता है। जन्म और मरण के दो किनारों के मध्य में जो जिन्दगी के वर्ष हैं, उन्हें हम जीवन कहते हैं । यह जिन्दगी की धारा जन्म-मरण के किनारों के मध्य गतिशील है-वस्तुतः यही जीवन है।
चैतन्य की अपेक्षा आत्मा अजन्मा है, परन्तु अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार चैतन्य (आत्मा) देह धारण करता है। अत: आत्मा का नया जन्म नहीं होता, जन्म होता है तो देह का। किसी एक योनि से बन्धे हुए आयु कर्म का उदय में आना जन्म है और उसका क्षय होना मरण है। उसके मध्य में देहवास की स्थिति जीवन है । आत्मा वही है-बदलता है केवल देह । जैसे एक व्यक्ति घर को छोड़कर अथवा तोड़कर नया घर बनाता है, बस इसी तरह संसार में परिभ्रमणशील आत्मा आयु कर्म का क्षय होते ही नये घर में प्रवेश करती है, इस नये घर के निर्माण को ही हम जन्म कहते हैं।
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