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[ कर्म सिद्धान्त
७. गोत्र - नाम कर्म को सर्व उत्तर प्रकृतियों की सम्मिलित शक्ति का प्रभाव देह की क्रियाओं पर प्रकट होता है, वह गोत्र कर्म है । यदि वे दैहिक क्रियाएँ सद्प्रवृत्तियों के रूप में हैं तो वह उच्च गोत्र है । दुष्प्रवृत्तियों के रूप में तो वह नीच गोत्र है ।
८. अंतराय – आयु, नाम, गोत्र इनका उदय (वेदन होने पर भोग की कामना का पैदा होना) अंतराय कर्म है । भोगों को प्राप्त करने की अभिलाषा दानान्तराय है, भोगों के प्रति रुचि होने की अवस्था लाभान्तराय है, भोगने की अभिलाषा भोगान्तराय है, बार-बार भोगने की अभिलाषा, लालसा का बना रहना उपभोग अन्तराय और भोगों के प्रति पुरुषार्थ करने की वृत्ति वीर्यान्तराय है । भोगों के भोगने की इच्छा या वासना नहीं रहने पर अंतराय कर्म क्षय हो जाता है ।
इस लेख में आयु, नाम, अन्तराय आदि कर्मों की मूल व उत्तर प्रकृतियों की परिभाषाएँ परम्परागत परिभाषाओं से भिन्न रूप में प्रस्तुत की गई हैं । इनका आधार यह है कि देह का हल्का, भारी, कठोर, नर्म, सबल - निर्बल, सुन्दरअसुन्दर होना, देह का काला गोरा आदि वर्णों का होना, सुगंध - दुर्गन्ध युक्त होना, मीठा, खट्टा आदि प्रास्वादन करना आदि की उपलब्धि कर्म बन्ध कारण नहीं है । अपितु इन्द्रिय और मन की प्रवृत्तियाँ व क्रियाएँ ही कर्म बन्ध के कारण होती हैं । इसी प्रकार आयु की कमी अधिकता भी कर्म बन्ध का फल नहीं है अपितु आयु जीवन की एक अवस्था है तथा भोगोपभोग संबंधी वस्तुनों का मिलना न मिलना सामान्य रूप से अन्तराय रूप है, परन्तु अन्तराय कर्म नहीं है ।
प्रातम - ध्यान
राग - जंगला
मैं निज आतम कब ध्याऊँगा ।
रागादिक परणाम त्याग के, समता सौं लौ लगाऊँगा । मैं निज० १ ॥
मन वच काय जोगथिर करकै, ज्ञान समाधि लगाऊँगा ।
aa हौं श्रेण चढ़ि ध्याऊँ, चारित मोह नशाऊँगा । मैं निज० २ ।।
चारों करम घातिया हन करि, परमातम पद पाऊँगा ।
ज्ञान दरश सुख बल भण्डारा, चार अघाति वहाऊँगा । मैं निज० ३ ॥ परम निरंजन सिद्ध बुद्ध पद, परमानन्द कहाऊँगा 'द्यान' यह सम्पत्ति जब पाऊँ, बहुरि न जग में श्राऊँगा । मैं निज० ४ ॥
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-द्यानतराय
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