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कर्म प्रकृतियां और उनका जीवन के साथ संबंध ]
- [ १३७ उपघात-कर्म चेतना के पश्चात् इन्द्रियों का संचरण होकर भोग वस्तु से सम्बन्ध स्थापित करने को उपघात नाम कहते हैं।
पराघात-भोग वस्तुओं से संबंध स्थापित होने पर विषयों की ओर आकर्षित होना पराघात है।
उच्छवास-भोग पदार्थों में आकर्षित होने के कारण भोग पदार्थों को प्राप्त करने के लिये उत्सुक होने को उच्छवास कहते हैं ।
प्रातप-उत्सुक होने पर भोगने की आकांक्षा का प्रकट होना जिससे देह में ताप होता है, आतप नाम है।
उद्योत-प्रकट हुई आकांक्षाएं पूर्ण करने को उद्यत या उत्सुक होना उद्योत नाम कर्म है।
त्रस, स्थावर, अशुभ और शुभ-उपघात की अवस्था में इन्द्रियों का बाह्य रूप से कार्य रूप में रत होना त्रस नाम कर्म है, आंतरिक संचरण स्थावर नाम कर्म है, शुभ या अशुभ में लगने के संस्कार शुभ, अशुभ प्रकृति है।
बादर, सूक्ष्म, सुभग, दुभग-पराघात की अवस्था में बाह्य रूप से कार्यरत होना बादर नाम और सूक्ष्म रूप से कार्यरत होने के संस्कार सूक्ष्म नाम कर्म है । पराघात अवस्था में नियंत्रण करने के संस्कार सुभग और नियन्त्रण नहीं करने के संस्कार को दुभग नाम कर्म कहते हैं ।
पर्याप्त-अपर्याप्त-सुस्वर-दुस्वर उच्छवास अवस्था अर्थात् भोग भोगने के लिये पर्याप्त रूप से या अपर्याप्त रूप से उत्सुक होना पर्याप्त-अपर्याप्त नाम कर्म है । उस पर्याप्त-अपर्याप्त अवस्था में शुभ की ओर या अशुभ की ओर जाने की अवस्था सुस्वर-दुस्वर है।
प्रत्येक साधारण, प्रादेय-अनादेय-उच्छवास अवस्था में प्रत्येक भोग्य वस्तु के प्रति उत्पन्न आकांक्षा प्रत्येक है और सामान्य आकांक्षा उत्पन्न होना साधारण है । आकांक्षाओं का नहीं करना आदेय है और आकांक्षाओं को करना अनादेय है।
स्थिर-अस्थिर, यशकीति, प्रयशकोति-उद्योत अवस्था में संस्कारों के अनुसार प्रवृत्ति होना अस्थिरता है और भोगों में प्रवृत्ति न होना स्थिरता है। शुभ प्रवृत्तियों में लगना यशकीर्ति है और मन को नियन्त्रित नहीं करना अयशकीति है।
निर्माण-उक्त प्रकृतियों को नियमित करना निर्माण है। तीर्थंकर-प्रकृतियों से उपरत होने की वृत्ति तीर्थंकर नाम कर्म है ।
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