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[ कर्म सिद्धान्त पाहारक-संयम पालन करने पर चित्त की प्रमत्ता का कार्यरत होना आहारक शरीर है।
तेजस-कर्मशक्ति चेतनशक्ति का प्रभाव तैजस शरीर है। कार्मण-पूर्व संस्कारों की जागृति का प्रभाव कार्मण शरीर है।
बंधन नाम कर्म-उपर्युक्त पांचों शरीरों में से जो शरीर एक दूसरे से संयुक्त होकर बंधन को प्राप्त होते हैं, वह बंधन नाम कर्म है।
संघातन-पांचों शरीरों की संयुक्त कार्य शक्ति संघातन है।
संस्थान संयुक्त कार्य शक्ति जीवन पर जिस प्रकार का प्रभाव प्रकट करती है, वह संस्थान है । यह छः प्रकार का है
हुण्डक-अत्यन्त तीव्र अभिलाषाओं के साथ भोग प्रवृत्तियों में (ग्राम शूकर की तरह) लगे रहने की वृत्ति हुण्डक संस्थान का लक्षण है।
वामन-भोग वृत्ति का कुछ कम होना, अल्प होना वामन है। कुब्जक-अल्प आर्जव, मार्दव का प्रकट होना कुब्जक संस्थान है। स्वाति-आत्मलक्षी होना स्वाति संस्थान है।
न्यगरोध परिमण्डल-भोग वृत्तियों का निग्रह करने की अवस्था न्यगरोध परिमण्डल संस्थान है। __ समचतुरस्र-समान भाव का होना समचतुरस्र संस्थान है।
नोट :-उपर्युक्त संस्थानों के अर्थ 'शब्द कल्पद्रुम' कोष के आधार पर किये गये हैं।
अंगोपांग संस्थानों से प्रभावित होकर प्रौदारिक, वैक्रिय या आहारक शरीर का कार्यरत होना।
संहनन-अंगोपांग की क्रिया शक्ति संहनन है। वह ६ प्रकार का हैवज्र ऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलिका और सुपाटिका । ये सभी संस्थान पुरुषार्थ के वाचक हैं।
__ वर्ग, गंध रस, स्पर्श-संहनन के अनुसार पांचों इन्द्रियों के विषयों में लगा रहना वर्ण, गंध, रस, स्पर्श कहा गया है ।
गत्यानपूर्वो–इन्द्रियों के विषयों में तीव्रता या मंदता के साथ लगे रहने की वृत्तियों के संस्कारों का होना गत्यानुपूर्वी है।
विहायोगति-अशुभ से शुभ की ओर, और शुभ से अशुभ की ओर जाने के संस्कारों को क्रमशः शुभ-अशुभ विहायोगति कहते हैं।
अगुरुलघु-चेतन गुण का प्रकट होना अगुरुलघु है ।
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