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[ कर्म-विमर्श नये घर में जाने के लिए पुराने घर को छोड़ना होता है अर्थात् देह छोड़ना मरण है। इस जन्म और मरण के बीच जो सांसों की झंकार है वही जीवन है । कर्म क्या है ?
· साधारण रूप में जो कुछ किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं। जैसे खानापीना, बोलना, चलना, सोचना, विचारना, उठना, बैठना प्रादि । किन्तु यहां कर्म शब्द से केवल क्रिया रूप ही परिलक्षित नहीं है । 'महापुराण' में कर्म रूपी ब्रह्मा के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार हैं:
विधि सष्टा विधाता च दैवं कर्मपुरा कृतम् ।
ईश्वर - ईश्वर चेती पर्याय-कर्म वेधस् । अर्थात्-विधि, सृष्टि, विधाता, देवपुरा, कृतम्, ईश्वर ये कर्म रूपी ब्रह्मा के वाचक शब्द हैं । इस कर्म शब्द से इसी ब्रह्मा को ग्रहण किया है।
जैन दर्शन के अनुसार जीव के द्वारा हेतुओं से जो किया जाय, उस पुद्गल वर्गणा के संग्रह का नाम कर्म है। शुभ एवं अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट और सम्बन्धित होकर जो पुद्गल आत्मा के स्वरूप को आवृत्त करते हैं, विकृत करते हैं और शुभाशुभ फल के कारण बनते हैं। उन गृहित पुद्गलों का नाम हैकर्म ! यद्यपि यह पुद्गल एक रूप है, तथापि यह जिस आत्म गुण को प्रभावित करते हैं, उसके अनुसार ही उन पुद्गलों का नाम हो जाता है ।
कर्म सिद्धान्त :
__जो नियम कभी नहीं बदलते और यथार्थता को लिए हुए होते हैं, उन अटल नियमों को सिद्धान्त कहते हैं। उपर्युक्त जीवन का आधार कर्मव्यवस्था है और कर्म-व्यवस्था के जो अटल नियम हैं, वहीं कर्म सिद्धान्त कहलाते हैं। जैसे धर्म दया में है, भूतकाल में था, वर्तमान में है, और भविष्य में भी रहेगा । ऐसे ही कर्म सिद्धान्त के नियम भी अटल हैं, जो इस प्रकार हैं :
(१) चेतन का सम्बन्ध पाकर जड़ कर्म स्वयं अपना फल देता है। आत्मा उस फल को भोगता है।
(२) किसी भी कर्म के फल भोगने के लिए कर्म और उसके करने वालों के अतिरिक्त किसी तीसरे व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि करते समय ही जीव के परिणामों के अनुसार एक प्रकार का संस्कार पड़ जाता है जिससे प्रेरित होकर जीव अपने कर्म का फल स्वयं भोगता है । कर्म भी चेतन से
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