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________________ कर्म एवं लेश्या ] [ ११७ कर्म सिद्धान्त की मान्यता वाले आश्चर्य करेंगे कि कर्म शुभ होते हुए विपाक अशुभ कैसे ? और कर्म अशुभ होते हुए विपाक शुभ कैसे ? । यहाँ कर्म की विभिन्न अवस्थाओं की जानकारी करा देना आवश्यक है जो लेश्याओं के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं। कर्म की मुख्य अवस्थाएँ ग्यारह हैं-(१) बन्ध, (२) सत्ता, (३) उद्वर्तन या उत्कर्ष, (४) अपवर्तन या अपकर्ष, (५) संक्रमण, (६) उदय, (७) उदीरणा, (८) उपशमन, (६) निधत्ति, (१०) निकाचित व (११) अबाधाकाल । इनमें उद्वर्तन, अपवर्तन एवं संक्रमण की महत्त्वपूर्ण अवस्थाएँ लेश्याओं का ही परिणाम हैं। जिस परिणाम विशेष से जीव कर्म प्रकृति को बाँधता है उनकी तीव्रता के कारण वह पूर्व बद्ध सजातीय प्रकृति के दलिकों को वर्तमान में बँधने वाली प्रकृति के दलिकों में संक्रान्त कर देता है । बध्यमान कर्म में कर्मान्तर का प्रवेश इसी संक्रमण का कारण है जो कर्म के बन्ध और उदय में अन्तर उपस्थित कर देता है, उसे बदल देता है। उद्वर्तन या उत्कर्ष : आत्मा के साथ प्राबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग या रस आत्मा के तत्कालीन परिणामों के अनुरूप होता है। परन्तु इसके पश्चात् की स्थिति विशेष अथवा भाव विशेष के कारण पूर्व बद्ध कर्म स्थिति और कर्म की तीव्रता में वृद्धि हो जाना उद्वर्तन है । लेश्या या प्रात्मा के परिणाम से पूर्वबद्ध स्थिति और रस अधिक तीव्र बना दिया जाता है। अपवर्तन या अपकर्ष : पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को कालान्तर में नवीन कर्मबन्ध करते समय न्यून कर देना अपवर्तन है। यह आत्मा के नवीन बध्यमान कर्मों के समय के परिणामों में शुद्धता आने से घटित होता है। इस प्रकार कर्म अशुभ होते हुए विपाक शुभ हो जाता है । और कर्म शुभ होते हुए विपाक अशुभ हो जाता है । यह आत्मा का पुरुषार्थ ही है और उसकी प्रबल शुद्ध विचारधारा है जिससे आश्चर्यकारी परिवर्तन घटित होते हैं। हमारा लक्ष्य अलेशी बनना : जब तक लेश्याएँ हैं तब तक परिणामों की विविधता रहेगी, अतः साधक का लक्ष्य होता है कि वह अलेशी बन सके। यह स्थिति साधना और वैराग्य भाव से उत्पन्न हो सकती है। लेश्याओं का परिणमन शुभतर लेश्याओं में करने के लिये स्वाध्याय और ध्यान आवश्यक अंग हैं । समभाव में रमण करना, अनासक्त भावों से जीवन व्यवहार करना तथा इन पर नियन्त्रण का अभ्यास करते रहना भव्यात्माओं के लिये अलेशी बनने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है और कर्म-बन्ध की परम्परा को सदा-सदा के लिये खत्म कर सकता है। और यही शाश्वत सुख का राजमार्ग है।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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