SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ ] [ कर्म सिद्धान्त ध्यान त्याग कर धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करती है । अल्पराग या वीतराग होकर प्रशान्त चित्त वाली होती है । उक्त अन्तिम तीन लेश्याएँ शुभ, शुभतर, शुभतम और शुद्ध होने से आत्मा की सुगति का कारण बनती हैं । इन परिणामों में रमण करते हुए श्रात्मा उत्थान करती है । उपर्युक्त परिणामों में विचरने वाला आत्मा तदनुरूप कर्मों का बन्ध करता और उन्हें भोगता है | श्याओं के दो प्रकार हैं- द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । पदार्थों के शुभाशुभ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द आदि से आत्मा में शुभाशुभ विचार उत्पन्न होते हैं । शुभ शब्द, वर्ण, रूप आदि को देखकर सुनकर और गन्ध, स्पर्श को अनुभव करके आत्मा में राग दशा उत्पन्न होती है । यह वर्णादि श्रात्मा को अनुकूल लगते हैं और आत्मा उनमें प्रासक्त बनकर कर्मों में बन्ध जाती है । इसके विपरीत अशुभ वर्ण, गन्ध श्रादि वाले पदार्थों को देखकर और अनुभव करके उनके प्रति घृणा उत्पन्न होती है, द्वेष भाव जाग्रत होता है जिससे आत्मा अशुभ कर्मों से जकड़ जाती है । इस प्रकार ये भाव लेश्याएँ अर्थात् श्रात्मा के शुभाशुभ परिणाम कर्म-बन्ध के मूल कारण बनते हैं । लेश्याओं का वैज्ञानिक विश्लेषरण : मुनि नथमलजी ने अपनी पुस्तक 'समाधि की खोज' प्रथम भाग के पृ. १५७ में लेश्या व कर्म सम्बन्धी जो विवेचन किया है वह लेश्या और कर्म-बन्ध का वैज्ञानिक विश्लेषण है । उन्होंने लिखा है, "जब लेश्या बदलती है तब परिवर्तन घटित होता है । जब मन में तेजो लेश्या और पद्म लेश्या के भाव आते हैं तब तेजस शरीर से स्राव होता है और वह हमारी ग्रन्थियों में आता है । वह सीधा रक्त के साथ मिल जाता है और अपना प्रभाव डालता है । इन अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के रस हमारे समूचे स्वभाव को प्रभावित करते हैं । व्यक्ति का चिड़चिड़ा होना या प्रसन्न होना, क्रोधी होना या शान्त होना, ईष्यालु या उदार होना इन ग्रन्थियों के विभिन्न स्रावों पर निर्भर है । इस प्रकार एक जैविक एवं रासायनिक विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि हमारे शुभाशुभ परिणामों से किस प्रकार रासायनिक क्रियाएँ घटित होती हैं और किस प्रकार वे हमारे संवेगों को प्रभावित करती हैं । कर्म की विभिन्न अवस्थाएं एवं लेश्यानों के प्रभाव : 'ठाणांग' सूत्र में एक चतुभंगी है - ( १ ) एक कर्म शुभ और उसका विपाक भी शुभ, (२) कर्म शुभ किन्तु विपाक अशुभ, (३) कर्म अशुभ परन्तु विपाक शुभ, (४) कर्म अशुभ और विपाक भी अशुभ । इस चतुर्भंगी को देखकर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy