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कर्म-विपाक
- श्री लालचन्द्र जैन
कर्मों के शुभाशुभ फल को सामान्यतः विपाक कहा जाता है। मिथ्यात्व आदि के सेवन से प्राणी जो कुछ कार्य करता है, उसे कर्म कहते हैं। वे कर्म जब उदय में आते हैं, तब प्राणी को जो सुख-दुःख आदि भोगने पड़ते हैं, उसे कर्म विपाक कहा जाता है। शुभ कर्म का विपाक शुभ और अशुभ कर्म का विपाक अशुभ होता है।
कर्मों को बाँधने में जीव स्वतंत्र है। वह अपनी इच्छानुसार शुभ या अशुभ कर्मों का बंध कर सकता है। जीव की बिना इच्छा के कोई कर्म कभी अपने आप नहीं बंधता । जब भी जीव राग-द्वेष की आसक्ति से कोई कार्य करता है, तब उस आसक्ति के तारतम्य के अनुसार नये कर्म बंधते हैं। वे ही कर्म जब उदय में आते हैं, तब जीव को उन कर्मों के फल को भोगना ही पड़ता है। उससे वह किसी प्रकार छूट नहीं सकता। इसीलिये कहा गया है कि जीव कर्मों को बाधने में स्वतंत्र है, पर उनके फल को भोगने में परतंत्र है। बंधे हुए कर्म यदि निकाचित हों तो करोड़ों सागरोपम समय के व्यतीत हो जाने पर भी वह कर्म नष्ट नहीं होता । संसार की सभी वस्तुएं नाशवान हैं, पर मात्र कर्म की जड़ ही ऐसी है जो कभी सड़ती-गलती नहीं। उग्र तप-संयम के बल से ही इस जड़ को उखाड़ा जा सकता है।
हिंसा, असत्य, अचौर्य,. अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि प्रत्येक पाप कर्म के विपाक का शास्त्रों में वर्णन है। पागलपन, कोढ़, अल्पायुष्य आदि हिंसा के भयानक विपाक हैं। यदि इस विपाक से बचना हो तो बिना प्रयोजन त्रसस्थावर जीवों की हिंसा से बचना चाहिये ।
खंधक मुनि के जीव ने अपने पूर्व भव में स्थावर जीव की विराधना में इतना रस लिया कि खंधक मुनि के भव में उनके जीवित शरीर की चमड़ी उतारी गई । वे तो आत्मध्यान की उच्चतम भूमि पर पहुँचे हुए थे, अतः उन्होंने उदय में आये हुए कर्मफल को समभाव से भोग लिया और मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया। किन्तु उदयकाल में समताभाव को रखना आसान नहीं है । जिनको यह स्पष्ट ज्ञान हो गया है कि आत्मा शरीर से भिन्न है, वे ही ऐसे कठिन समय में समभाव को कायम रख सकते हैं।
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