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________________ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड १०७ कृति-रचना है, मुझ पण्डित राजमल्लने स्वयं यह कोई नया काव्य नहीं रचा-नूतन रचना नहीं की। ___ भावार्थ--श्रीमत्पण्डित राजमल्लजी ग्रन्थ पूर्ण करते हुए कहते हैं कि यह 'अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड' नामक शास्त्र शब्द और अर्थ की रचना है और यह शब्द अर्थ अनादि तथा अनन्त हैंस्वयं सिद्ध हैं अर्थात् पहिले से ही मौजूद थे। अतः मैंने कोई नई रचना नहीं की-मैं उनका संयोजकमात्र हूँ* । इस प्रकार अपनी लघुता प्रकट करते हैं और इतना गंभीर महान् प्रन्थ रचकर भी अपनी निरभिमानतावृत्ति को सूचित करते हैं। इतिशम् । इस प्रकार श्री 'अध्यात्मकमलमार्तड' नामक शास्त्रमें सप्त-तत्त्व और नव पदार्थोंका वर्णन करनेवाला चौथा परिच्छेद पूर्ण हुश्रा । इस तरह हिन्दीभाषानुवादसहित अध्यात्मकमलमार्तण्ड सम्पूर्ण हुआ। *इसी भावको श्रीमदमृतचन्द्राचार्यने, जो प्रस्तुत ग्रन्थ-रचयिताके पूर्ववर्ती हैं, अपने तत्त्वार्थसारकी समाप्तिके अन्तमें निम्न प्रकार प्रकट किया है: वर्णाः पदानां कर्त्तारो वाक्यानां तु पदावलिः । वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि न पुनर्वयम् ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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