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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला विचार करते हैं--पढ़ते पढ़ाते और सुनते सुनाते हैं-वे नियमसे मोह-तत्त्वज्ञानविषयकभ्रान्तिसे रहित होकर सम्यग्दर्शनका लाभ करते हैं-सम्यग्दृष्टि होते हैं।
भावार्थ-इस पाके द्वारा शास्त्रज्ञानका फल-सम्यक्त्वका लाभ मुख्यरूपसे बताया ही गया है। साथमें सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका लाभ भो सूचित किया है; क्योंकि एक तो सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भी यथाचितरूपमें होते ही हैं । दूसरे, शास्त्रज्ञानसे अज्ञाननिवृत्ति और विषयोंमें संवेग तथा निर्वेदभाव पैदा होता है । अतः जो भव्यजीव इस 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' को पढ़ते-पढ़ाते और सुनते-सुनाते हैं वे नियमसे रत्नत्रयका लाभ करते हैं और अन्तमें केवलज्ञानको प्राप्त करके मोक्षको पाते हैं।
ग्रन्थकारका अन्तिम निवेदनअर्थाश्चाद्यवसानवर्जतनवाः सिद्धाः स्वयं मानतस्तल्लक्ष्मप्रतिपादकाश्च शब्दा निष्पन्नरूयाः किल । भो ? विज्ञाः ? परमार्थतः कृतिरियं शब्दार्थयोश्च स्वतो नव्यं काव्यमिदं कृतं न विदुषा तद्राजमल्लेन हि ॥ २० ॥ इति श्रीमदध्यात्मकमलमार्तण्डाभिधाने शास्त्रे सप्त-तत्व-नव-पदार्थ
प्रतिपादकश्चतुर्थः परिच्छेदः ।
इति अध्यात्मकमलमार्तण्डः समानः । अर्थ-पदार्थ अनादि और अनन्त हैं और वे स्वयं प्रमाणसे सिद्ध हैं। उनके स्वरूप-प्रतिपादक शब्द भी स्वयं निष्पन्न हैंसिद्ध हैं। हे बुधवरो । वस्तुतः यह ग्रन्थ शब्द और अर्थको ही
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