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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला द्रव्यबन्धके भेद और उनके कारणप्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेशभेदाच्चतुर्विधो बन्धः। प्रकृति-प्रदेशबन्धौ योगात्स्यातां कषायतश्चान्यौ ॥७॥
अर्थ-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशधन्ध ये चार द्रव्यबन्धके भेद हैं। इनमें प्रकृति और प्रदेशबन्ध तो योगसे होते हैं और अन्य-स्थिति तथा अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं।
भावार्थ----ज्ञानावरण आदि कर्म-प्रकृतियों में ज्ञान, दर्शन आदिके घातक स्वभावके पड़नेको प्रकृतिबन्ध कहते हैं । यह प्रकृतिबन्ध दो प्रकारका है :-(१) मूलप्रकृतिबन्ध और (२)उत्तरप्रकृतिबन्ध । मूलप्रकृतिबन्धके आठ भेद हैं-(१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय । जो आत्माके ज्ञानगुणको ढांके'उसे न होने दे उसको ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जो दर्शनगुणको घाते, उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। जिस कर्मके उदयसे सुखदुःख देनेवाली इष्टानिष्ट सामग्री प्राप्त हो वह वेदनीयकर्म, जिस कर्मके उदयसे परवस्तुओंको अपना समझे वह मोहनीय, जिसके उदयसे यह जीव मनुष्य आदि पर्याय में स्थिर रहे वह
आयु, जिसके उदयसे शरीर आदि प्राप्त करे वह नाम-कर्म, जिसके उदयसे यह जीव ऊँच, नीच कहलाये वह गोत्र और जिसके उदयसे दान, लाभ आदिमें चिन्न हो वह अन्तरायकर्म है । उत्तर प्रकृतिबन्धके १४८ भेद हैं-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नाम ६३, गोत्र २
और अन्तराय ५। परिणामोंकी अपेक्षा कर्म-प्रकृतियोंके असंख्य भी भेद हैं। स्थिति-कालकी मर्यादाके पड़नेको
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