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________________ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड ७७ सामान्यकी दृष्टिसे यद्यपि वह एक और अखंड द्रव्य है तथापि कथंचित्-किसी अपेक्षासे-जीवादि पांच द्रव्योंके पाये जाने और न पाये जानेकी अपेक्षासे दो प्रकारका कहा गया है-(१) लोका. काश और (२) अलोकाकाश । ___ भावार्थ-श्राकाश द्रव्य यह है जो सम्पूर्ण द्रव्योंको अवकाश दान देता है। यह द्रव्य अनन्त और अनादि है। एक और अखंड है। उपचारसे उसके दो भेद कहे गये हैं-जितने आकाशक्षेत्र में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाशक्षेत्रका नाम लोकाकाश है और उसके बाहर सब आकाश अलोकाकाश जानना चाहिये। यही श्रागेके पद्यमें स्पष्ट किया गया है। लोकाकाश और अलोकाकाशका स्वरूपयावत्स्वाकाशदेशेषु सकलचिदचित्तत्वसत्ताऽस्ति नित्या तावन्तो लोकसंज्ञा जिनवरगदितास्तदहियें प्रदेशाः । सर्वे तेऽलोकसंज्ञा गगनमभिदपि स्वात्मदेशेषु शश्व भेदार्थाचोपलम्भाद्विविधमपि च तन्नेव बाध्येत हेतोः॥३४॥ __ अर्थ-जितने आकाश-प्रदेशोंमें सम्पूर्ण चेतन, अचेतन तत्त्वों-द्रव्योंकी सत्ता है-अस्तित्व है, उतने अाकाश-प्रदेशोंकी जिनेन्द्र भगवान्ने 'लोक'--'लोकाकाश' संज्ञा कही है और उसके बाहर जितने आकाश-प्रदेश हैं, उन सबकी 'अलोक' - 'अलोकाकाशं । स्वात्मैवास्याधेय आधारश्चेत्यर्थः । कुतः १ ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यान्तराभावात् । न हि आकाशादधिकप्रमाणं द्रव्यान्तरमस्ति यत्राकाशमाधेय स्यात् । ततः सर्वतो विरहितान्तस्याधिकरणान्तरस्याभावात् स्वप्रतिष्ठमव. सेयम् ।'---राजवार्तिक पृ० २०५, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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