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वीर सेवा मन्दिर - ग्रन्थमाला
प्रकार से निरूपण न किया जा सके वह सब अनित्थंभूतलक्षण संस्थान है । जैसे मेघादिकका संस्थान । टुकड़े आदिको भेद कहा गया है । वह छह प्रकारका है - उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन । लकड़ी आदिको करौंच आदिसे चीरनेपर जो टुकड़े होते हैं वह उत्कर कहलाता है। गेहूँ आदिके चूनको चूर्ण कहते हैं । घड़ा आदिके खप्पर आदि टुकड़ोंको खण्ड कहते हैं। उड़द आदिकी चुनीको चूर्णिका कहते हैं। मेघपटल
दिकी श्रेणी अथवा जुदाईको प्रतर कहते हैं । तपे हुए गोले आदिमेंसे घन आदिकी चोट लगनेपर जो अमिकरण-स्फुलिंग (तिलगा) निकलते हैं वे अणुचटन हैं । दृष्टिको रोकनेवाले तमको अंधकार कहते हैं । प्रकाशपर आवरण होनेसे छाया होती है। । सूर्य, अग्नि, दीपक आदिके निमित्तसे होनेवाली उष्णताको आप कहते हैं । चन्द्रमा, मणि, जुगुनू आदिके प्रकाशको उद्योत कहते हैं । ये सब ( शब्दादि ) पुद्गलद्रव्यकी अशुद्ध पर्यायें हैं ।
* 'भेदाः षोढा, उत्कर चूर्ण खण्ड चूर्णिकाप्रतरागुचय्नविकल्पात् । तत्रोत्करः काष्ठादीनां करपत्रादिभिरुत्करणम् । चूर्णो यवगोधूमादीनां सक्तुकणिकादिः। खण्डो घटीदानां कपालशर्करादिः । चूर्णिका माषमुद्गादीनां । प्रतरोऽभ्रपटलादीनां । चटनं संतप्तायःपिण्डादिषु योघनादिभिरभिहन्यमानेषु स्फुलिङ्गनिर्गमः ।' --सर्वार्थसि०, राजवार्तिक ५-२४
+ 'तमो दृष्टिप्रति कारणं' दृष्टेः प्रतिबंधकं वस्तु तम इति व्यपदिश्यते' यदपहरन् प्रदीपः प्रकाशको भवति । छाया प्रकाशावरण गिमित्ता । प्रकाशावरं शरीरादि यस्या निमित्तं भवति सा छाया ।'
-- सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक ५-२४
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