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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
द्रव्यका लक्षण -
गुणपर्ययवद्द्रव्यं विगमोत्पादध्रुवत्ववच्चापि । सल्लक्षणमिति च स्याद्द्द्वाभ्यामेकेन वस्तु लक्ष्येद्वा* ||५|| अर्थ — जो गुण और पर्यायवान् है वह द्रव्य है तथा वह द्रव्य सत्-लक्षणरूप है और सत् उत्पाद, व्यय और धौव्यका लिये हुए है । इन दोनों लक्षणोंसे अथवा दोनोंमें से किसी एक लक्षण से भी वस्तु लक्षित होती है— जानी जाती है । भावार्थ- जो गुण और पर्यायों वाला है अथवा उत्पाद, और व्य-स्वरूप है वह द्रव्य है । ये द्रव्यके दो लक्षण हैं, इन दोनोंसे अथवा किसी एकसे वह जाना जाता है ।
व्यय
गुगका लक्षण
अन्वयिनः किल नित्या गुणाश्च निर्गुणावयवा हयनन्तांशः । द्रव्याश्रया विनाश-प्रादुर्भावाः स्वशक्तिभिः शश्वत् ॥ ६ ॥
* 'दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुण-पज्जयासयं वा जं तं भांति सव्वहू ||'
— पंचास्तिकाये, श्री कुन्दकुन्दाचार्यः 'अपरिचत्तसहावे गुप्पादव्ययधुवत्तसंजुतं । गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति बुच्चंति ॥' --प्रवचनसारे, श्रीकुन्दकुन्दाचार्यः
'सद्रव्यलक्षणम्' 'उत्पादव्ययश्रव्ययुक्त सत् ।' 'गुणपर्ययवद्द्रव्यम् ।' -तत्त्वार्थ सूत्र ५ - २६,३०,३८ + 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' – तत्त्वार्थ सूत्र ५-४६
'जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदवि सिद्वो ।' प्रवचनसा०२-१७ 'अन्वयिनो गुणाः' - सर्वार्थसि० ५-३८
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