SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका को कषाय जब अत्यन्त सूक्ष्म हो जाती है तब वे सूक्ष्मसाम्पराय संयमो कहे जाते हैं। ३३४. प्र०-यथाख्यात संयम किसको कहते हैं ? उ०-समस्त मोहनीयकर्मके उपशमसे अथवा क्षयसे जैसा आत्माका निर्विकार स्वभाव है वैसा हो स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। ३३५. प्र०–संयमासंयम किसको कहते हैं ? -उ०-सम्यग्दर्शनपूर्वक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंके धारण करनेको संयमासंयम कहते हैं। ३३६.प्र०-असंयम किसको कहते हैं ? उ.-जीव-हिंसा और इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत न होनेको असंयम कहते हैं। ३३७. प्र०-किन गुणस्थानोमें कौन सा संयम होता है ? उ०-सामायिक और छेदोपस्थापना छठेसे नौवें गुणस्थान तक होते हैं। परिहारविशुद्धि छठे और सातवें गुणस्थानमें होता है। सूक्ष्मसाम्पराय संयम केवल दसवें गुणस्थानमें होता है। यथाख्यात संयम ग्यारहसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होता है । संयमासंयम पाँचवें गुणस्थानमें होता है और असंयम आदिके चार गुणस्थानमें होता है। ३३८. प्र०-दर्शन किसको कहते हैं ? उ.-सामान्य विशेषात्मक बाह्य पदार्थों को अलग-अलग भेद रूपसे ग्रहण न करके जो सामान्य ग्रहण होता है, उसको दर्शन कहते हैं। अर्थात् विषय और विषयीके योग्य देशमें होनेको पूर्वावस्थाको दर्शन कहते हैं। ३३९. प्र०-दर्शन कब होता है ? उ०-ज्ञानके पहले दर्शन होता है। बिना दर्शनके अल्पज्ञानियोंको ज्ञान नहीं होता। परन्तु सर्वज्ञ देवके ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं। ३४०. प्र०-दर्शनके कितने भेद हैं ? उ०-चार-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । ३४१. प्र०-चक्षुदर्शन किसको कहते हैं ? उ०-चक्षु इन्द्रियसे होनेवाले मतिज्ञानके पहले जो सामान्य ग्रहण होता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। ३४२. प्र०-अचक्षुदर्शन किसको कहते हैं ? उ०-चक्षुके सिवाय अन्य इन्द्रियों और मन सम्बन्धी मतिज्ञानके पहले जो सामान्य ग्रहण होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy