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________________ ए करणानुयोग-प्रवेशिका उ०-ईहाके द्वारा जाने गये पदार्थके निश्चयात्मक ज्ञानको अवाय कहते हैं । जैसे—यह बगुलोंकी पंक्ति हो है। २९४. प्र०-धारणा किसको कहते हैं ? उ०-कालान्तरमें भी विस्मरण न होने रूप संस्कारके जनक ज्ञानको धारणा कहते हैं। २९५. प्र०-मतिज्ञानके विस्तारसे कितने भेद हैं ? उ०-तीन सौ छत्तीस-मतिज्ञानके विषयभूत पदार्थ दो प्रकारके हैंएक व्यंजनरूप या अव्यक्त और एक अर्थरूप या व्यक्त । पदार्थके अवग्रहादि चारों ज्ञान होते हैं और व्यक्त पदार्थका केवल अवग्रह ही होता है। व्यक्त पदार्थके अवग्रहको अर्थावग्रह कहते हैं और अव्यक्त पदार्थके अवग्रहको व्यंजनावग्रह कहते हैं। व्यंजनावग्रह चक्ष और मनके सिवाय शेष चार इन्द्रियों से होता है इसलिये उसके चार भेद हुए और अर्थके अवग्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं तथा प्रत्येक ज्ञान पाँचों इन्द्रियों और छठे मनसे होता है इसलिए चौबीस भेद हुए। इनमें व्यंजनावग्रहके चार भेद मिलानेसे अट्ठाईस भेद हए तथा अर्थरूप और व्यंजनरूप विषयके बारह भेद हैं-बह, बहुविध, क्षिप्र, अनिसत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनके प्रतिपक्षो-एक, एकविध, अक्षिप्र, निसृत, उक्त और अध्रुव । इन बारहों प्रकारके विषयोंका अट्ठाईसअट्ठाईस प्रकारका ज्ञान होनेसे मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद हैं। २९६. प्र०-बहु, बहुविध आदिका क्या स्वरूप है ? , उ०-जहाँ बहुत व्यक्तियोंका मतिज्ञान हो, उसके विषयको बहु कहते हैं । जहाँ बहुत जातियोंका मतिज्ञान हो उसके विषयको बहुविध कहते हैं । जैसेबहुत सी गायोंको बहुज्ञान कहते हैं और काली, पीली आदि बहुत प्रकार की गायोंके ज्ञानको बहुविध ज्ञान कहते हैं। एक व्यक्तिको एक कहते हैं जैसेएक गौ। एक जातिको एकविध कहते हैं जैसे-एक प्रकारको अनेक गायें। क्षिप्र शीघ्रको कहते हैं, जैसे-शोघ्र गिरतो हई जलधारा । अक्षिप्र मन्दगतिसे चलती हुई वस्तुको कहते हैं, जैसे-मन्दगतिसे जाता हुआ घोड़ा । अनिसृत ढके हुए को कहते हैं, जैसे-जल में डूबा हुआ हाथो । निसृत प्रकटको कहते हैं, जैसे-जलसे बाहर खड़ा हुआ हाथो । अनुक्त बिना कहे हुए को कहते हैं, जैसे-बिना ही कुछ कहे किसीके अभिप्रायको जान लेना अनुक्तज्ञान है। उक्त कहे हुए को कहते हैं, जैसे-किसीने कहा यह घट है। ध्रुव स्थिरको कहते हैं, जैसे-पर्वत । अध्रुव अस्थिर को कहते हैं, जैसे-क्षण स्थायी बिजलो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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