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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका २५ उ.-जिस गुणस्थानमें अत्यन्त सूक्ष्म अवस्थाको प्राप्त लोभ कषाय मात्रका उदय शेष रहता है उसको सूक्ष्मसाम्पराय नामका दसवाँ गुणस्थान कहते हैं। १३३. प्र०-उपशान्तकषाय गुणस्थानका क्या स्वरूप है ? उ०-जैसे गदले पानीमें फिटकरी डालनेसे पानी ऊपरसे निर्मल हो जाता है और गाद उसके नीचे बैठ जाती है वैसे ही जिस जीवका मोहनीय कर्म पूरी तरहसे उपशान्त हो जाता है, वह जीव उपशान्त कषाय नामक दसवें गुणस्थानवाला कहा जाता है। इस गुणस्थानका काल अन्तर्मुहर्त है। काल पूरा हो जानेपर मोहनीयका उदय हो आता है, जिससे इस गुणस्थानवाला जीव गिरकर नीचेके गुणस्थानोंमें आ जाता है। १३४. प्र०-क्षीणकषाय गुणस्थानका क्या स्वरूप है ? उ०-मोहनीय कर्मको समस्त प्रकृतियोंका क्षय हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके पात्रमें रखे हुए जलके समान निर्मल होता है उसको क्षीणकषाय गुणस्थानवाला कहते हैं। १३५. प्र०-उपशान्तकषाय और क्षीणकषायमें क्या अन्तर है ? उ०-उपशान्तकषाय जीवके यद्यपि मोहका उदय नहीं है फिर भी मोहनीय कर्मकी सत्ता है किन्तु क्षीणकषाय जीवके मोहनीय कर्मका उदय भो नहीं है और अस्तित्व भी नहीं है। फिर भी दोनोंके ही परिणामोंमें कषायोंका अभाव है अतः दोनोंके यथाख्यात चारित्र होता है और दोनों ही बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहसे रहित होनेके कारण निम्रन्थ कहे जाते हैं। १३६. प्र०-सयोगकेवली गुणस्थानका क्या स्वरूप है ? उ०-जो केवल ज्ञानरूपी सूर्यके द्वारा लोगोंका अज्ञानरूपी अन्धकार दूर करते हैं और क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वोर्य, इन नौ केवललब्धियों के प्रकट होने से जो परमात्मा कहे जाते हैं उनको सयोग-केवलो गुणास्थानवर्ती कहते हैं। आशय यह है कि योगको मुख्यता होने से उन्हे सयोग कहते हैं, केवलज्ञानी होनेसे केवलो कहते हैं और घाति कर्मोका निर्मूल नाश कर देने से वे जिन कहे जाते हैं। इस तरह उसका पूरा नाम सयोगकेवलो जिन सार्थक है। १३७, प्र०-अयोगकेवलो गुणस्थान क्या स्वरूप है ? उ.-समस्त कर्मोंका आस्रव रुक जानेसे जिनके नवीन कर्मबन्धका सर्वथा अभाव है तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोगसे रहित होनेके कारण जो अयोग कहे जाते हैं उनको अयोगकेवली कहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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