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________________ करणानुयोग प्रवेशिका एक साथ अधःप्रवृत्तकरणको प्रारम्भ किया । द्वितीय आदि समय बीतने पर उनमें से एक जीवके परिणाम जैसो विशुद्धताको लिये हुए होते हैं, दूसरे जीवके सो विशुद्धताको लिये हुए परिणाम प्रथम समय में भी होते हैं । इस प्रकार इस करण में ऊपर और नीचेके समय सम्बन्धी परिणामोंकी समानता और असमानता होनेसे इसे अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं । इसका काल अन्तर्मुहूर्त है । १२९. प्र० - अपूर्वकरण किसको कहते हैं ? उ०- जिसमें प्रति समय अपूर्व अपूर्व परिणाम हों उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं । सारांश यह है कि इस करण में ऊपर के समयों में स्थित जीवोंके और नीचे समयों में स्थित जीवोंके परिणाम कभी भी समान नहीं होते । किन्तु एक ही समय में स्थित जीवोंके परिणाम समान भी होते हैं और समान नहीं भी होते । जैसे - जिन जीवोंको अपूर्वकरणमें आये पाँचवाँ समय है, उन जीवों के जैसे परिणाम होते हैं वैसे परिणाम जिन जीवोंको अपूर्वकरणमें आये एक, दो, तीन या चार अथवा छै समय हुए हैं, उनके कभी भी नहीं होते । तथा पांचवें समय में वर्तमान जीवोंके परिणाम परस्पर में समान भी होते हैं और नहीं भो होते । इसका काल भी अन्तर्मुहुर्त है । 1 १३०. प्र० – अधःकरण और अपूर्वकरण में क्या अन्तर है ? उ०- अधःकरण में भिन्न-भिन्न समयोंमें वर्तमान जीवोंके परिणामोंमें जैसे समानता होती है अपूर्वकरण में वह नहीं होती तथा अधःकरणमें जैसे एक समय में स्थित जीवों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों होता है वैसे अपूर्वकरण में भी होतो है । १३१. प्र० – अनिवृत्तिकरण किसको कहते हैं ? - उ०- जिस करण में भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम असमान ही होते हैं और एक समयवर्ती जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं, उसको अनिवृत्तिकर कहते हैं । जैसे -जिन जीवों को अनिवृत्तिकरण में आये हुए पाँचवाँ समय है उम त्रिकालवर्ती जीवोंके परिणाम परस्पर में समान ही होते हैं, होन अधिक नहीं होते तथा वे परिणाम, जिन जीवोंको अनिवृत्तिकरण में आये हुए चौथा महुआ है, उनके विशुद्ध परिणामोंसे अनन्तगुणे विशुद्ध होते हैं । इसी तरह जिन जीवोंको अनिवृत्तिकरण में आये हुए छठा समय हुआ है, उनके परिणाम पाँचवें समयवर्ती जोवोंके विशुद्ध परिणामोंसे अनन्तगुणे विशुद्ध होते हैं । इसी तरह सर्वत्र जानना । १३२. प्र० - सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानका क्या स्वरूप है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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