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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका पंक्तिबद्ध विमान हैं उन्हें श्रेणिबद्ध कहते हैं तथा उन श्रेणिबद्ध विमानोंके बीच, में विदिशाओं में जो विमान बिखेरे हए फलोंकी तरह स्थित हैं उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। प्रत्येक पटल सम्बन्धी उत्तर दिशाके श्रेणिबद्ध विमान और वायव्य तथा ईशान विदिशाके प्रकीर्णक विमान ईशान इन्द्र के अधीन है, अतः उन्हें ईशान स्वर्ग कहते हैं और शेष सब इन्द्रकविमान, तीन दिशाके श्रेणिबद्ध विमान और नैऋत्य तथा आग्नेय विदिशाके प्रकीर्णक विमान सौधर्मेन्द्र के अधीन हैं । अतः उन्हें सौधर्म स्वर्ग कहते हैं । सौधर्म ऐशान युगलसे ऊपर डेढ़ राजूको ऊँचाई में सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग हैं। इनके सात पटल हैं। सो सौधर्म युगलके अन्तिम पटलसे असंख्यात योजन ऊपर प्रथम पटल है। उसके ऊपर असंख्यात असंख्यात योजनका अन्तराल छोड़ छोड़कर द्वितोय आदि पटले हैं। इनमें भी उक्त प्रकारसे इन्द्रक आदि विमान हैं। उनमेंसे उत्तर दिशाके श्रेणिविमान और वायव्य तथा ईशान कोणके प्रकीर्णक विमान उत्तरेन्द्र महेन्द्रके अधीन है अतः उन्हें माहेन्द्र स्वर्ग कहते हैं । शेष विमान दक्षिणेन्द्र सनत्कुमारके अधीन हैं अतः उन्हें सानत्कुमार स्वर्ग कहते हैं । इस तरह ऊपर-ऊपर अन्य युगल तथा उनके पटल जानना। इतना विशेष है कि सानत्कुमार युगलसे ऊपर शेष छै युगल आधे-आधे राजूमें स्थित हैं। इस तरह छै राजूमें सोलह स्वर्ग हैं तथा ब्रह्मब्रह्मोत्तर युगल, लान्तवकापिष्ठ युगल, शुक्र-महाशुक्र युगल और शतार-सहस्रार युगलोंमें एक-एक हो इन्द्र है तथा आनत-प्राणत युगल और आरण-अच्युत यूगलों में दो-दो इन्द्र हैं। उनमें आनत और आरण दक्षिणेन्द्र हैं तथा प्राणत और अच्युत उत्तरेन्द्र हैं। आरण अच्युत स्वर्गके अन्तसे ऊपर एक राजूकी ऊँचाई में कल्पातीत देव रहते हैं। उनमें सबसे प्रथम ग्रैवेयक हैं। वेयकके तीन विभाग हैं-अधोवेयक, मध्यप्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयक । प्रत्येकके तीन-तीन पटल हैं । सो अच्युत स्वर्गके अन्तसे ऊपर असंख्यात योजन अन्तराल छोड़कर अधोग्रैवेयकका प्रथम पटल है। उसके ऊपर इसी तरह अन्तराल छोड़-छोड़कर ऊपर-ऊपर पटल हैं। उपरिम प्रैवेयकके अन्तिम पटलसे ऊपर असंख्यात योजन अन्तराल छोड़कर नौ अनुदिश विमान हैं। सो बीचमें एक इन्द्रकविमान है, चारों दिशाओंमें चार श्रेणिबद्ध विमान हैं और चारों विदिशाओंमें चार प्रकीर्णकविमान हैं। उनसे असंख्यात योजन ऊपर पाँच अनुत्तरविमान हैं। उनके बीच में सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रकविमान है और चारों दिशाओंमें विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार श्रेणिविमान हैं। पाँच अनुत्तरोंसे बारह योजन ऊपर सिद्धक्षेत्र है। ७४. प्र०-स्वर्गो में देवांगनाओंकी उत्पत्ति कहाँ होती है ? उ०-सब कल्पवासिनी देवांगनाएँ सौधर्म और ईशान स्वर्गमें हो उत्पन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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