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________________ करणानुयोग-प्रवेशिका १०३ ६९३. प्र०-पाचव गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व रहता है ? उ०-एक नरकायुके बिना १४७ का, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टोकी अपेक्षा १४० का हो सत्व होता है। ६९४. प्र०-पाँचवें गुणस्थानमें सत्त्व व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोंकी होती है ? उ० - एक तिर्यञ्चायुकी। ६९५. प्र०-छठे गणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व रहता है ? उ०-नरकायु और तिर्यञ्चायुके बिना १४६ का, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टीको अपेक्षा १३६ का हो सत्त्व रहता है। ६९६. प्र०-सातवें गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व रहता है ? उ०-छठे गुणस्थानकी तरह १४६ का अथवा १३६ का । ६९७. प्र०—आठवें गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व रहता है ? उ०-आठवें गुणस्थानसे दो श्रेणी प्रारम्भ होती हैं- उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि । द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणि ही चढ़ता है। अतः उनके सातवें गुणस्थानमें जो १४६ का सत्त्व कहा है उनमें से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभको घटानेपर १४२ का सत्व होता है किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टी यदि उपशम श्रेणि चढ़ता है तो उसके सातवें गुणस्थानकी तरह १३६ का सत्त्व होता है और क्षपक श्रेणिवालेके अनन्तानुबन्धो ४, दर्शन मोहनीय ३ और मनुष्यायुके सिवाय तीन आयुके बिना १३८ का ही सत्व होता है। ६९८. प्र०-नौवें गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है ? उ०-आठवें गुणस्थानको तरह इस गुणस्थानमें भी उपशम श्रेणिवाले द्वितोयोपशम सम्यग्दृष्टिके १४२, क्षायिक सम्यग्दृष्टिके १३६ और क्षपक श्रेणिवालेके १३८ प्रकृतियोंका सत्व होता है । ६९९. प्र०-नौवें गुणस्थानमें किन प्रकृतियोंकी सत्त्व व्युच्छित्ति होती है ? उ०-नोवें गुणस्थानके प्रथम भागमें नरकगति, तिर्यञ्चगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जाति, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत, आताप, साधारण, सूक्ष्म और स्थावर इन सोलह प्रकृतियोंको सत्व व्युच्छित्ति होती है। दूसरे भागमें अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ इन आठ प्रकृतियोंकी सत्व व्युच्छित्ति होती है। तीसरे भागमें नपुंसक वेद, चौथे भागमें स्त्रोवेद, पांचवें भाग में छै नोकषाय, छठे भागमें पुरुषवेद, सातवेमें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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