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[ जैन कथा संग्रह
समान डांवाडोल हो गया। वे अपने को न संभाल सके, और दिली की बात कोशा से कह ही तो दी।
कोशा ने सोचा मुनि मन से तो भ्रष्ट हो गये । अब इन्हें सन्मार्ग पर लाना चाहिये । उसने कहा मुनिराज, बिना धन के आपकी इच्छा पूरी नहीं हो सकती। मुनि ने उत्तर दिया कि हम लोगों के पास धन कहां से आये ? कोशा ने उन्हें बताया कि आप नेपाल देश में जाइये । वहां प्रथम बार जाने वाले मुनि को राजा रत्नकंवल दान देता है।
मुनि चौमासे में एक ही जगह रहते हैं परन्तु मनोभिलाषा पूरी होने की लालसा से मुनि ने वह प्रतिज्ञा भंग की, और नेपाल जाकर रत्नकंवल प्राप्त किया। वह रत्नकवल लेकर वापस आरहे थे कि मार्ग में उन्हें चोरों ने पकड़ लिया परन्तु मुनि समझ के बिना कुछ हानि पहुंचाए छोड़ दिया।
रत्नकंबल लेकर मुनि कोशा के पास पहुँचे । कोशा ने स्नान करके उससे शरीर पोंछा और उसे कूड़े में फेंक दिया। यह देखकर मुनि ने आश्चर्य एवं दुख के साथ कहा-कोशा इतनी मूल्यवान वस्तु तुमने इस तरह फेंक दी ? मैं इसे कितने परिश्रम से लाया था। कोशा ने उत्तर दिया-मुनिराज, क्या आपकी आत्मा इससे कम मूल्यवान है ? उसे मलिन करने में आपको दुख नहीं होता ? फिर मैंने इस रत्नकंवल को मलिन करके फेंक दिया तो दुख की क्या बात है ?
यह सुनते ही मुनि की आँखें खुल गई। ओहो, मेरा कितना पतन हो गया। उन्होंने कोशा का आभार माना और कहा-कोशा) तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है। अब मैं गुरुदेव के पास जाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करूंगा। कोशा ने मुनिराज से क्षमा मांगी और कहा-मुनिराज, मैंने आपसे अनुचित कार्य कराया है, परन्तु आपके हित के लिये ही।
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