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श्री स्थूलीभद्र ] -
[ ७५ सी प्रकार उन्होंने तीनों साधुओं से प्रश्न किया। उनके तप ज से सिंह आदि भयंकर प्राणी भी शान्त हो गए थे। अत: उन्हें इसी प्रकार की हानि नहीं पहुंची थी। जब स्थूलीभद्र गुरू के समीप
ये तो विशेष आदर देते हुये उन्होंने उनसे भी यही प्रश्न किया। न्य शिष्यों को यह बात बहुत बुरी लगी। उन्होंने सोचा-- इसने ऐसा निसा दुष्कर कर्म किया है। यह मन्त्री-पुत्र है, इसलिये गुरु इसका तना आदर करते हैं । खैर, अगला चौमासा आने पर देखा जायगा। आगामी चातुर्मास को राह देखते हुए वे संयम और तप का जीवन बिताने लगे।
जो शिष्य शेर की गुफाओं के सामने ध्यान लगाकर चार मास तक रहा था, उसने दूसरा चौमासा आने पर कहा-गुरुदेव ! मैं भाँति-भाँति के भोजन करते हए कोशा के यहाँ चातुर्मास करूगा। गुरुने समझ लिया कि इस कार्य में स्थूलीभद्र के सिवाय कोई पूरा नहीं उतर सकता। शिष्य ने कहा, इसमें मुश्किल ही क्या है ? गुरु ने बहुन सममाया कि यह कार्य बहुत कठिन है । तुम चरित्र भ्रष्ट हो जाओगे, पर वह न माना, और कोशा के द्वार पर चला ही गया। वह तो अपने को संयमशूर मानता था।
कोशा ने मुनि को नमस्कार किया। मुनि ने चौमासा बिताने के लिए उसका रंग महल माँगा, और कोशा ने उसे वहां रहने की ज्ञा देदो।
कोशा को अब धर्मज्ञान हो चुका था। वह समझ गई कि यह मुनि स्थूलीभद्र को प्रतिद्वन्दिता करने के लिए आए हैं । एक दिन दो. बहर को वह सुसज्जित होकर मुनि के पास गई । मुनि तो देखते ही विचलित हो गये । उन्होंने ऐसा अलौकिक रूप लावण्य पहले कभी नहीं देखा था। उसका संयम पवन के झोकों से डिगमिग पुष्पलता के
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