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________________ ७४ ] [ जैन कथा संग्रह उसने अपने जीवनप्राण स्थूलोभद्र को पुनः पाया, परन्तु दूसरे हो वेश में । स्थूलीभद्र ने कोशा से पूछा-बाई मैं आपके घर में आ सकता हूँ ? कोशा ने उत्तर दिया-प्रियतम, घर भी आपका और दासो भी आपकी है, आज्ञा किससे मांगते हो ? स्थूलीभद्र ने कहा-कोशा वे दिन भूल जाओ। अब तो साधु हो चुका हूँ। आज्ञा दोगी तो ही भीतर आ सकूगा । कोशा ने आदर पूर्वक कहा-भीतर पधारिये, मेरे योग्य सेवा बतलाइये। मुनि ने कहा-अपने रंगमहल में चौमासा बिताने की आज्ञा दे सकती हो क्या ? कौशा ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और वे वहां रहने लगे। . वर्षाऋतु, कोशा जैसी अलौकिक रूप लावण्य की खान वेश्या, भोगविलास की रंगभूमि, विचित्र चित्रों से चित्रित कोशा का विलासभवन ! परन्तु स्थूलीभद्र मुनि तो अद्वितीय मुनि थे, उनके मन पर इन सब सुख सामग्री का कुछ भी प्रभाव न पड़ा। इतना ही नहीं, वे नित्य नये-नये स्वादिष्ट भोजन करते, कोशा अनेक प्रकार से उन्हें समझाती, गीत वाद्य और नृत्य का अलौकिक प्रभाव डालकररिझातो, पर मुनि का हृदय तो पत्थर चट्टान सा बन गया था। मुनि पर रग चढाया सो न चढ़ा । अन्त में कोशा को ही अपने पाप मय जीवन से घृणा उत्पन्न होगई। उसने विनयपूर्वक कहा-पूज्य आपका संसार अलौकिक है । मैं कुपथ पर जाती रही हूँ । अब तो कृपा करके मुझे भी सन्मार्ग बतलाइये। . स्थूलीभद्र ने उसे धर्म का मम समझाया और कई ब्रत ग्रहण कराये। चौमासा बीतने पर चारों साधु गुरू के पास आये । गुरू ने पहले साधु से पूछा-हे दुष्कर कर्म करने वाले, तुम कुशल से हो ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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