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श्रीस्थूलभद्र ]
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और नाक के आगे रुमाल तक नहीं किया । अब तो उन्हें विश्वास हो गया कि इस पर वैराग्य का रंग पूरा चढ़ा है । उन्होंने श्रेयक को प्रधान पद दिया और उसने भी उसे स्वीकार कर लिया ।
( ४ )
स्थूलीभद्र एक प्रसिद्ध जैनाचार्य संभूतविजय के पास गये और दीक्षा ग्रहण की । वे वहां रहकर ज्ञान प्राप्त करने लगे । और थोड़े ही समय में उन्होंने मन एवं काम बासना पर अधिकार जमा लिया ।
चौमासा ( वर्षा - चातुर्मासा ) आने पर साधु चार मास तक एक ही स्थान पर रहते हैं । ( भ्रमण नहीं करते ) अतएव चातुर्मासा आरंभ होने से पहिले ही बहुत से शिष्य गुरु के पास आकर भिन्नभिन्न स्थानों में रहने की अनुमति मांगने लगे। किसी ने कहा- मैं सिंह की गुफा के द्वार पर जाकर रहूँगा, और ४ मास तक उपवास करूंगा। किसी ने कहा- मैं सर्पों की बामी के निकट रहकर ४ मास उपवास करते हुए ध्यान लगाऊँगा ।' किसी ने कहा- मैं ३ मास कुए की मैंड के पास ध्यानास्थित रहकर उपवास वरूंगा इत्यादि । परन्तु स्थूलभद्र ने कहा- मैं कोशा वैश्या के रंग- महल में रहकर मधुराहार करते हुए चौमासा बिताऊँगा । गुरू ने अपने ज्ञान से सबकी इच्छायें उचित समझ कर आज्ञा प्रदान करदी । सब साधु भिन्न भिन्न स्थानों को चले गये ।
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कोशा स्थूलभद्र के वियोग से व्यथित रहती थी, रो-रो कर दिन बिता रही थी । न दिन को चैन था न रात को आराम । कभी-कभी श्रेयक उसके यहां जाते और उसे धंयं दे आते थे ।
मुनि स्थूलीभद्र कोशा के द्वार पर पहुँचे तो दासी ने तुरन्त भीतर जाकर कोशा को खबर दी । वह स्थूलीभद्र का नाम सुनते ही हर्षोन्मत्त होकर द्वार की ओर दौड़ी । आज इतने दिन बाद
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