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________________ ७२ ] [ जैन कथा संग्रह किया है | स्थूलभद्र मन ही मन सोचने लगा । ऐसा क्या काम होगा कि जिसमें महाराज को मेरी आवश्यकता प्रतीत हुई । पालकी पर सवार होकर स्थूलीभद्र राजदरबार में पहुँचा, वहीं मालूम हुआ कि - उसके पिता परलोक सिधार चुके हैं। इससे उसे अत्यन्त दुःख हुआ, वह मन ही मन अपने को धिक्कारने लगा । ओहो, मैं कितना पामर हूँ, जो भोग-विलास में डूबा रहा और अन्त समय में भी पिता के दर्शन न कर सका । राजा ने स्थूलभद्र से कहा- आप अपने पिता के स्थान पर मन्त्री पद स्वीकार कीजिये - स्थूलीभद्र ने उत्तर दिया- महाराज ! मेरा हृदय इस समय शोक से विह्वल है । शान्त हृदय से विचार करके उत्तर दूँगा । राजा ने कहा- कोई हानि नहीं, वाटिका में विश्राम कीजिये । वहां के शीतल पवन से प्राप्त होगी । आप अशोक आपको शान्ति अरे, यह स्थूलीभद्र अशोक वाटिका में बैठकर विचार करने लगे - मन्त्री पद भी कितनी हेय वस्तु है ? इसीके कारण आज पिता को कुमौत मरना पड़ा । मन्त्री पद का अर्थ है - राजा को और प्रजा को प्रसन्न रखना । आत्मा की आवाज को वहाँ स्थान नहीं है, आखिर इस झंझट से फायदा क्या है ? दुनियाँ को प्रसन्न करते क्यों फिरें ? अपने आत्मा की ही चाकरी आराधना क्यों न करें ? पित की मृत्यु और इस प्रकार के विचारों से उनका हृदय संसार से विरक्त हो गया, वैराग्य के रंग में रंग गया । राजदरबार में आकर उन्होंने राजा से कहा - " राजन्, मुझे मन्त्रीपद की आवश्यकता नहीं है. आपका कल्याण हो ।" यह कहकर वे तुरन्त वहाँ से चल दिये राजा ने समझा कि ये कोशा के प्रेम पाश में बँधे हुए हैं अतः वह जायेंगे | परन्तु उन्होंने देखा कि वे एक दुर्गन्धमय मार्ग से जा रहे For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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