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श्री स्थूलीभद्र ]
मुनि गुरु के पास गये और भूल का प्रायश्चित करके पुनः विशेष सावधानी के साथ संयम व्रत का पालन करने लगे।
स्थूलीभद्र अखंड ब्रह्मचर्य का पालन और हृदय को उत्तरोतर अधिक पवित्र करते हुये देशाटन करने लगे । उन्होंने अपने मन पर पूरी तरह से काबू पा लिया था।
उसी समय एक बार १२ वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा। साधुओं को भिक्षा मिलनी भी कठिन हो गई, अतः वे समुद्रतीरवर्ती फलयुक्त प्रदेशों के भिन्न भिन्न स्थानों में जा बसे । अकाल निकल जाने पर जब वे वहाँ से लौटे तो बहुत से शास्त्र पाठों को भूल चुके थे, अतः मनि संघ ने विचार किया कि इसी प्रकार बार बार दुष्काल पड़ा तो सब ज्ञान विस्मृत हो जायगा । अब समय परिवर्तित हो चुका है , स्मरण-शक्ति घट रही है, अतः जिसे जितना स्मरण हो वह सब संग्रहीत करना चाहिये। । सबसे विचार करके पाटलीपुत्र में साधुओं की एक परिषद् की और उपरोक्त विचारानुसार सबके पास से सूत्र पाठ एकत्रित किया । इस प्रकार समस्त शास्त्र संग्रहीत होगये, किन्तु एक महान ज्ञान बास्त्र रह गया। उसके लिये साधु सन्त ही चिन्ता में पड़ गये। । उन दिनों सभूतविजय जी के समान ही अद्वितीय विद्वान द्रिबाहु नामक एक आचार्य थे। उन्हें सम्पूर्ण १४ शास्त्र पूर्ण स्थ थे । परन्तु वे उस समय नेपाल देश में ध्यानावस्थित ।। संघ ने उन्हें बुलाने के लिये दो साधु भेजे। उन्होंने नेपाल हाफर आचार्य भो जी प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा कि हिाराज, संघ ने आपको पाटलीपुत्र पधारने की विनती की है। चार्य ने उत्तर दिया कि इस समय मुझे १२ वर्ष तक ध्यानावस्थित ना है । उसके पूरे होने से पूर्व कहीं नहीं जा सकता। साधुओं ने ली पुत्रवापिस आकर संघ · को यह समाचार सुना दिया।
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