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[ जैन कथा संग्रह . सुधर्मास्वामी भगवान महावीर के गणधर (संघ नायक) थे । वे उस समय के सारे जैन-संघ के नेता थे। फिर भला उनके उपदेशों में अमृत की वर्षा के अतिरिक्त और क्या हो सकता था ? '
जम्बूकुमार उन्हें वंदन करके उपदेश सुनने लगे। वे ज्यों-ज्यों उपदेश सुनते गये, त्यों-त्यों उनका मन संसार से विरक्त होता गया। उपदेश पूरा होते-होते जम्बूकुमार का हृदय वैराग्य से भर गया।
वे हाथ जोड़कर बोले, कि-"प्रभु ! मुझे दीक्षा लेनी है अतः मैं माता-पिता से आज्ञा लेकर आऊँ तब तक आप यहीं विराजने की कृपा करें । सुधर्मास्वामी ने यह स्वीकार कर लिया।
___रथ में बैठकर जम्बूकुमार पीछे लौटे । नगर के दरवाजे पर पहुँचकर देखते हैं, कि सेना की भीड़ दरवाजे से निकल रही है। हाथी, घोड़े, पैदल की कोई सीमा ही नहीं थी। ऐसी भीड़ को चीर कर भीतर कैसे जाया जा सकता ? और जब तक सेना पार न हो जाय, तब तक वहां रुक भी कैसे सकते थे ?. अतः वे दूसरे दरवाजे की तरफ चले।
जब वे दूसरे दरवाजे के नजदीक पहुँचे, तब एक जबरदस्त लोहे का गोला धम्म से उसके पास आ गिरा। यह गोला उन सिपाहियों द्वारा चलाया हुआ था, जो लड़ाई की शिक्षा ले रहे थे। यह देखकर जम्बू कुमार विचारने लगे, कि अहो ! यह लोहे का गोला यदि मेरे सिर पर गिरता, तो मेरी क्या दशा होती? मैं निश्चय ही ऐसे व्रतहीन जीवन की दशा में ही मर जाता, अतः चलू, अभी गुरुजी के समीप जाकर ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा ले आऊँ।
जम्बूकुमार सुधर्मास्वामी के पास आये और हाथ जोड़कर बोले-"भगवान् ! मुझे जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य व्रत के पालन की प्रतिज्ञा करवा दीजिये।" सुधर्मास्वामी ने व्रत प्रतिज्ञा करवा दिया।
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