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________________ ४६ ] [ जैन कथा संग्रह वह प्रसन्न होकर जाता था। इसके अतिरिक्त वे अपना माल बेचते भी थे बहत सस्ता । साथ ही माल भी बहत बढ़िया रखते थे। यही कारण था कि थोड़े ही दिनों में उनकी दुकान अच्छी तरह जम गई। यों तो सभी लोग उनके यहां सौदा खरीदते ही थे किन्तु उनके दुकान की प्रतिष्ठा थोड़े ही दिनों में इतनी बढ़ी कि राजा के रनवास की दासियाँ भी उन्हींके यहाँ सामान खरीदने आने लगीं। जब दासियां वस्तु खरीदने आतीं तो धनसेठ उस चित्र की पूजा करने लगते। उन्हें यह करते देख एक दिन एक दासी ने उनसे पूछा-"धनसेठ ! आप किसकी पूजा करते हैं ?" धनसेठ ने उत्तर दिया-"अपने देव की" दासी ने कहा-इस देव का नाम क्या है ? "धनसेठ ने उत्तर दिया-'श्रेणिक" । दासी ने आश्चर्य में भरकर पूछा-'मैंने सभी देवताओं के नाम सुने हैं, किन्तु उनमें श्रेणिक नाम के देव कोई नहीं । क्या ये कोई नये देव हैं।" धनसेठ ने कहा-"हां ! तुम अन्तःपुर की स्त्रियों के लिये मगध देश के महाराजा -- श्रेणिक सचमुच नये देव ही हैं।" दासी ने कहा-"क्या महाराज श्रेणिक इतने अधिक सुन्दर हैं ?" ऐसा सुन्दर स्वरूप तो आज तक मैंने कभी देखा ही नहीं है।" यों कहकर वह चली गई। उस दासी ने आकर, यह बात राजा चेतक की पुत्री सुज्येष्ठा से कही । सुज्येष्ठा की इच्छा उस चित्र को देखने को हुई। उसने वह चित्र मंगवाया, और उसे देखते ही वह राजा श्रेणिक पर मोहित होगई । उसने धनसेठ से कहलाया कि-"आप कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे किसी भी तरह मेरा विवाह राजा श्रेणिक के साथ है जाय।" अभयकुमार ने शहर के बाहर से राजा के अन्तःपुर (जनान खाने) तक एक सुरंग खुदवाई । उस सुरंग के दरवाजे पर एक र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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