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________________ चन्दनबाला । अत्यन्त सुन्दरी मां-बेटी को देखकर विचार किया कि चम्पानगरी में लेने के योग्य वस्तुयें तो ये ही हैं। यह सोचकर उसने इन दोनों को पकड़ा और बांधकर अपनी ऊँटनी पर बिठा लिया। ऊँटनी तेजी से चलने लगी। ऊँटनी सपाटे से रास्ता काटने लगी । वह न तो नदी-नालों को गिनती, और न काँटे भाटे की ही परवा करती थी। पवन-वेग से दौड़ती हुई, वह एक घोर जंगल में आई। उस वन के वृक्ष और टेढ़े मेढ़े रास्ते आदि सभी भयावने मालूम होते थे। मनुष्य की तो वहाँ सूरत भी नहीं दिखाई देती थी। उस बन में पशु-पक्षी इधर-उधर घूमते और आनन्द करते। - वहां पहुंचने पर धारिणी ने उस सवार से पूछा-"तुम हम दोनों को क्या करोगे ? सवार ने उत्तर दिया-:'अरे सुन्दरी ! तू किसी प्रकार की चिन्ता मत कर । मैं तुझे अच्छा-अच्छा भोजन दूंगा, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाऊँगा और अपनी स्त्री बनाऊंगा। यह बात सुनते ही, धारिणी के सिर पर तो मानो वज्र ही गिर पड़ा ! वह विचारने लगी कि-"अहो ! कैसा उत्तम मेरा कुल ! कैसा श्रेष्ठ मेरा धर्म ? और आज मुझे यह सुनने का समय आया ! ऐ प्राण ! तुम्हें धिक्कार है ? ऐसे अपवित्र शब्दों को सुनने के बदले तुम इस शरीर को क्यों नहीं छोड़ देते।" "शील (सदाचार) भङ्ग करके जीवित रहने की अपेक्षा इसी क्षण मर जाना अत्यन्त श्रेष्ठ है !" इन विचारों का धारिणी के हृदय पर बड़ा प्रभाव हुआ और वह जीभ खींच के लाश बनकर ऊंटनी पर से नीचे गिर पड़ी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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