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________________ १६ ] । जैन कथा संग्रह : यह देखते ही वसुमती चिल्ला उठी कि "ओ माता ! ओ प्यारी-माता ! इस भयावने जंगल में मुझे यम के हाथ सौंपकर दू. कहां चली गई। राज्य तो नष्ट हो ही चुका था, पर इस कैद की दशा . में मुझे केवल एक तेरा ही सहारा था, सो तू भी आज मुझे छोड़कर चल दी !" यों विलाप करते-करते वह बेहोश हो गई। उस सवार ने यह देखकर विचारा कि "मुझे इस बहिन से ऐसे शब्द कहना उचित न था। किन्तु खैर, अब इस कुमारी को तो हगिज कुछ न कहना चाहिए। नहीं तो यह भी अपनी मां की तरह प्राण छोड़ देगी।" यों सोचकर वह वसुमती का बड़ा सत्कार करने लगा। जब वसुमती होश में आई, तब उस सवार ने बड़े मीठे शब्दों में उससे कहा कि-"अरे बाला ! धीरज रख । जो कुछ होना था वह हो चुका, अब शोक करने से क्या लाभ है ! तू शान्त हो, तुझे किसी भी तरह का कष्ट न होने पायगा!" ... इस तरह, मोठे शब्दों में आश्वासन देता हुआ वह वसुमती को लेकर कौशाम्बी आया ? कौशाम्बी शहर तो मानों मनुष्यों का समुद्र सा था। उसके रास्ते पर मनुष्यों की अपार-भीड़ रहती थी। देश-विदेश के व्यापारी अपने-अपने काफिले लेकर वहाँ जाते और माल की अदलाबदली करते। वहां सभी प्रकार की वस्तुयें बिकती थीं। अनाज और किराना बिकता, पशु-पक्षी बिकते और यहाँ तक कि उस नगर में मनुष्य (दास-दासी) भी बेचे जाते थे। उस ऊँट-सरवार ने विचार किया कि "यह कन्या बड़ी सुन्दर है, यदि मैं इसे बेव दूतो खूब रुपया मिल जायगा अत: चलो मैं इस बाजार में इसे बेच ही हूँ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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