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________________ १२ ] । जैन कथा संग्रह गई। उनसे वसुमती ने धर्म सम्बन्धी गहरा ज्ञान प्राप्त किया। एक तो वह पूर्व जन्म के शुभ संस्कारों से युक्त थी ही, तिस पर सद्गुणी माता-पिता के यहाँ उसका जन्म हुआ, साथ ही विद्या पढ़ने की रुचि और पढ़ाने वालों की चतुरता । इन सब कारणों से वसुमती के गुणों का खूब विकास हुआ। वह प्रतिदिन सवेरे जल्दी उठकर श्री जिनेश्वरदेव का स्मरण करती । फिर माता के साथ बैठकर प्रतिक्रमण करती। ज्योंही प्रतिक्रमण पूरा होता त्यो ही जिन-मन्दिर के घड़ी-घन्टों की आवाज सुनाई देती । अतः मां-बेटी दोनों ही सुन्दर वस्त्र पहन कर मन्दिर को जातीं और वहां अत्यन्त श्रद्धा और भाव पूर्वक वन्दन करतीं। फिर मन्दिर की अद्भुत शान्ति देखकर वसुमती अपनी माता से कहती "माताजी ! कैसा सुन्दर स्थान है ! अपने राजमहल में तो बड़ी गड़बड़ और दौड़-धूप लगी रहती है, उसके बदले में यहां कैसी परम शान्ति है ? मेरा तो यहो जी चाहता है कि यहीं बैठी रहूँ और शान्ति के समुद्र समान इस प्रतिमा के दर्शन एक-टक दृष्टि से सदा किया ही करू।" वसुमती की यह बात सुनकर धारिणी कहती, कि "बेटी वसुमती ! तुझे धन्य है, जो तेरे हृदय में ऐसी भावना उत्पन्न हुई। सत्य है, ये राजमहल के सुख वैभव क्षणिक-प्रलोभन मात्र हैं। उनमें मला वह शान्ति कैसे मिल सकती है, जो श्री जिनेश्वर देव के मुख पर दिखाई दे रही है ? अहा, इनके स्मरण करने मात्र से दुख साग में डूबे हुए को भी शान्ति मिलती है। बेटा! इनका पवित्र-नाम कभी भी न भूलना।" इस तरह मां बेटी की परस्पर बात चोत होती और फिी घर आकर अच्छे-अच्छे ग्रन्थों को पढ़तीं। दोनों इसी तरह आनन मैं दिन बिताती रहती थीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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