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________________ दानवीर जगडूशाह ] [ १४३ देश के राजाओं को अनाज उधार दिया। किसी को बारह हजार बोरी, किसी को अठारह हजार बोरी, किसी को इक्कीस हजार और किसी को बत्तीस हजार बोरी। इस तरह नौ लाख और निन्नानवें हजार बोरी अनाज उन्होंने राजा लोगों को उधार दिया। किन्तु दानवीरों का साहस क्या इतना ही कर के समाप्त हो सकता है ? जगडूशाह ने इसके बाद एक सौ बारह ११२ सदाव्रत-दान शालायें खोलीं, जिनमें सदैव पांच लाख मनुष्य भोजन करते थे। इस मौके पर उन्होंने खुले हाथ इतना अधिक दान दिया कि लोग उन्हें धनकुबेर कहने लगे। वास्तव में जगडूशाह की यह उदारता धन्य है। उनकी इस उदारता ने जैन-धर्म को समस्त भारत में चमका • दिया। लोगों को यह बात मालूम होगईं कि 'जैन' शब्द का वास्तवविक अर्थ है-जगत भर को दया पालले वाला। जीव को मरने से बचाने वाला। उन्होंने तीन बार बड़े-बड़े संघ निकाल कर पवित्र तीर्थ शत्रअय की यात्रायें की। भद्रेश्वर का बड़ा मन्दिर बनवाया और अन्य भी छोटे-बड़े मन्दिरों की रचना करवाई। कहा जाता है कि उन्होंने कुल एक सौ आठ १०८ मन्दिर बनवाये । इसके अतिरिक्त उन्होंने भद्रेश्वर में खीमली नामक एक मस्जिद भी बनवाई । यहाँ कोई यह प्रश्न कर सकता है कि जगडूशाह के समान जैन धार्मिक मनुष्य ने यह मस्जिद क्यों बनवाई ? तो. उत्तर यह है कि जगडूशाह एक बहुत बड़े व्यौपारी थे। उनके यहां देश-विदेश से व्यौपारी लोग आया करते थे। इन व्यापारियों में बहत से मुसलमान व्यौपारी भी होते थे। इन लोगों को नमाजबन्दगी आदि कार्यों में मस्जिद के बिना बड़ी अड़चन पड़ा करती थी। अपने घर पर आये. हुये महमान को यदि किसी प्रकार की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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