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________________ १४२ ] [ जैन कथा संग्रह ही मैं इस किले को बनवाऊँगा।" इसके बाद पीठदेव की जरा भो परवाह किये बिना ही उन्होंने किले का काम जारी रखा। इस किले को दीवारों में उन्होंने एक गधा खुदवाया और उसके सिर पर दो सोने के सींग लगवाये । अब तो बड़े के साथ बैर हो गया था, अतः बैठकर रहने से काम न चलेगा। इसी विचार से जगडूशाह गुजरात के राजा विशलदेव से जाकर मिले और उन्हें सारा हाल सुनाकर उनसे एक बड़ी सेना ले आये । इस सेना के आ जाने का समाचार पाकर पीठदेव चुप हो गया और उसने आकर जगडूशाह से संधि कर ली। जगडूशाह के पास अपार-धन था, किन्तु फिर भी उनमें अभिमान का नाम न था । प्रभु-पूजा और गुरु-भक्ति में तो वे बेजोड़ एक ही थे। एक बार गुरुजी ने उनसे कहा कि-"जगडू ! तीन-वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने वाला है, अतः तुम अपने धन का अधिक से अधिक सदुपयोग करना।" जगडूशाह को इतना इशारा देना ही काफी था। उन्होंने देश-विदेश से अनाज खरीद-खरीदकर गरीबों के लिये कोठे भरवा दिये।" ठोक संवत् तेरह सौ तेरह १३१३ वर्ष का प्रारम्भ होते ही भयंकर दुष्काल पड़ा । लोग अन्न-अन्न चिल्लाते हुए मरने लगे । यह दुष्काल तीनवर्ष तकरहा । इन तीनों वर्षों में भी संवत् तेरह सौ पन्द्रह १३१५ के साल में तो इसका प्रभाव चरम सीमा पर जा पहुँचा था। तेरहसौ पन्द्रह का यह अकाल मशहूर हो गया। कहा जाता है कि इसके बाद फिर कभी वैसा दुष्काल नहीं पड़ा। उस समय महगाई की यह दशा थी, कि चार आने में सिर्फ तेरह चने मिलते थे। अपने बच्चों को भूनकर खाने जैसे वीभत्स कार्य के उदाहरण भी इसी समय मिलते हैं। . ऐसे भयंकर दुष्काल में से जनताको बचाने के लिये जगडूशाह ने देश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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