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________________ दानवीर जगडूशाह ] [ १४१ प्रतीत हो, मुझे दे सकते हैं" जगडूशाह बोले, कि-"जयन्तसिंह क्या तुम पागल हो गये हो? तुमने तो मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाई है, अतः तुम्हें सिरोपाव देना चाहिये, न कि दण्ड ।" यों कहकर एक मूल्यवान पगड़ी और मोतियों की माला पुरस्कार में दे दी। वह पत्थर जगडूशाह ने अपने घर के आंगन में जड़वा दिया। एकबार एक जोगी बाबा-जगडूशाह के यहाँ भिक्षा मांगने आये। उन्होंने यह पत्थर देखकर जगडूशाह से कहा-कि "बच्चा! इस पत्थर में तो बड़े-बड़े मूल्यवान रत्न हैं, अतः तू इसको तोड़ कर उन्हें निकाल ले । जगडूशाह ने उसके कहने के अनुसार उस पत्थर को तोड़कर उसमें से वे रत्न निकाल लिए, जिससे उन्हें पैसों की कमी नहीं रही। जगडूशाह के पास ऋद्धि-सिद्धि तो खूब हो गई, किन्तु उनके कोई पुत्र न था। एक कन्या हुई थी, जो विवाह करते हो विधवा हो गई. इससे उन्हें बड़ा दुःख पहुँचा। किन्तु इस दुःख के रोने न रोकर, उन्होंने धर्म के कार्य करने शुरू कर दिए और आत्मा को शान्ति पहुँचाई। एकबार पठार देश के पीठदेव नामक राजा ने भद्रेश्वर पर चढ़ाई की और शहर को बरबाद कर दिया। बहुत सा धन-माल लूटकर, अन्त में वह अपने देश को वापस लौट गया। यह देखकर, जगडूशाह ने फिर से भद्रेश्वर का किला बनाना शुरू किया। अभिमानी पीठदेव ने जब यह समाचार सुना तो उसने जगडूशाह को कहला भेजा-"यदि गंधे के सिर पर सींग उगाना सभव हो तो तुम इस किले को बनवा पाओगे, अन्यथा कभी नहीं।" जगडूशाह ने उत्तर दिया कि-"गधे के सिर पर सींग उगा कर . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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