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________________ पेथड़कुमार ] ___ अब पेयड़कुमार अपना अधिकांश समय प्रभु भक्ति में ही बिताने लगे । वे सवेरे-शाम प्रतिक्रमण करते, और तीन काल में जिनेश्वर की पूजा करते । यों करते-करते जब उन्हें यह जान पड़ा कि मेरा मरणकाल नजदीक है, तो उन्होंने तीर्थङ्कर देव का ध्यान धर लिया और शान्तिपूर्वक अपनी आयु पूर्ण की। - सारा मांडवगढ़, मन्त्रीश्वर के मरण से दुखी हो उठा। झांझणकुमार के दुःख की तो कोई सीमा ही न थी। इस शोक को दूर करने के लिए उन्होंने शत्रुञ्जय का एक महान संघ निकाला। इस संघ में बारह-हजार गाड़िये और पच्चीस-हजार पीठ पर सामान ले चलने वाले लोग थे । बहुत से मुनि महात्मा भी इस संघ में थे। संघ के चौकीदार पहरे के लिए ही दो-हजार सिपाही साथ थे। इससे उस संघ की विशालता का अनुमान लगा लीजियेगा। यह बाप-बेटे की जोड़ी धर्म-भावना से परिपूर्ण थी। उन्होंने अपने उच्च-जीवन तथा अपार-सम्पत्ति से जैन-धर्म को चमकाया था। ऐसे अनेकों रत्न जैन समाज में पैदा हों और संसार में शान्ति तथा प्रेम की स्थापना करें। यही शुभ कामना है । मनुष्य के भाग्य का कोई पता नहीं है, किस समय कैसी स्थिति हो जाय पर जब भाग्य साथ दे और धन और सत्ता प्राप्त हो जाय तो उसका सदपयोग कर लेना चाहिये । पुरे दिनों में घबराना नहीं चाहिये और समृद्धि मिलने पर अभिमान नहीं करना चाहिये। पितकुमार ने बरी और अच्छी दोनों स्थितियां देखीं और जो उन्हें करना चाहिये था किया। जैन श्रावक केवल व्यापारी ही नहीं होता वे समाज और धर्म की महान सेवा करने वाला भी होता है अपने कल्याण के साथ प्राणी मात्र के कल्याण का वह प्रयत्न करता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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