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________________ १०० ] [ जैन कथा संग्रह बनाने शुरू किए और अपनी प्रतिज्ञा का नियमपूर्वक पालन करने लगे । कुछ दिन बाद महाराजा संप्रति ने अपने अधीनस्थ राजाओं को बुलाकर कहा, कि मुझे तुम्हारे धन की आवश्यकता नहीं हैं, यदि तुम मुझे प्रसन्न रखना चाहते हो तो जैन-धर्म स्वीकार कर लो और ऐसी व्यवस्था करो कि तुम्हारे राज्यों में साधु सुखपूर्वक विचरण कर सकें । इस सुझाव से प्रेरित होकर सैकड़ों राजाओं ने जैन-धर्म स्वीकार कर लिया । अब राजा को भारत-वर्ष के बाहर भी धर्मप्रचार करने का विचार हो आया। वे सोचने लगे कि-विदेशों में धर्मप्रचार तभी हो सकता है कि जब श्रेष्ठ चारित्र और उच्च ज्ञान वाले साधु देशदेशान्तरों में फैल जांय । परन्तु बीच में कितने ही ऐसे अनार्य देश हैं, जहां के लोग यह जानते ही नहीं कि साधु को किस प्रकार का भोजन दिया जाता है और उनके साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाता है । ऐसी दशा में साधु सवत्र किस प्रकार विहार कर सकते हैं ? सोचते-सोचते राजा को एक युक्ति सूझी। उन्होंने साधु वेषधारी अन्य लोगों को उन देशों में भेजा। उन्होंने वहां जाकर लोगों को अच्छी तरह से सिखला दिया कि साधु के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए । उन लोगों ने सबको यह भी समझा दिया कि साधुओं के साथ उचित व्यवहार न होगा तो महाराजा संप्रति कठोर दण्ड देंगे। इस प्रकार कई वर्षों के प्रयत्न से अनार्य देश वाले भी साधुओं के साथ उचित व्यवहार करना सीख गये। तब एक दिन राजा ने गुरुराज से कहा- 'भगवन् ! साधु लोग अनार्य देशों में क्यों नहीं जाते ? उन्होंने उत्तर दिया कि अनार्य देशों में जाने से साधुओं के चरित्र को हानि पहुँचने का भय हैं । तब राजा ने आग्रह पूर्वक निवेदन किया कि महाराज, आप एकबार साधुओं को उन देशों में भेजकर परीक्षा तो करके देखें कि वहां वे लोग कैसा व्यवहार करते हैं। राजा संप्रति के आग्रह से गुरुराज ने साधुओं को अनार्य देशों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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