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________________ महाराजा संप्रति ] चंदन करने लगे, उसकी सेवा करने लगे, यह सब साधु-धर्मः काही प्रभाव था। अतएव मरने के समय उसके हृदय में शुभ भावना उत्पन्न हुई। वह सोचने लगा-ओहो, एक दिन के बारित्र का जव यह फल है, तो वर्षों के चारित्र का क्या फल होगा? उसने मरते मरत भी भवोभव में साधू-धर्म के पालन की उत्कट इच्छा की, और जैन धर्म, की प्रशंसा करते करते शरीर छोड़ दिया । राजन्, (कुणाल के पुत्र) तुम वही साधु हो। शुभ भावों से खूब पुण्य संचय किया, उसका यह सुफल मिला है व और आगे के जोवन में भी मिलेगा। .. यह सब हाल सुनकर राजा कृत-कृत्य हो गए और कहने लगेशुरुदेव, आपने मेरा अत्यन्त उपकार किया है। आप पूर्वभव में दीक्षा न देते तो इस भव में मुझे यह वैभव कहां से मिलता ?. अब कृपा करके मुझे और भी कल्याणकारी सन्मार्ग दिखलाइए । - आचार्य आर्य सुहस्ती महाराज ने कहा-तुम जैन धर्म स्वीकार करो। जैन मन्दिर व मूर्तियों का निर्माण कराओ। धर्म का सर्वत्र प्रचार करो। जैन साधुओं की भक्ति करो। आचार्य के उपदेश से राजा ने जैन धर्म अंगीकार किया और यथा-शक्ति पवित्र जीवन बिताने का निश्चय किया। उसके मन.में विचार आया कि समस्त संसार में अहिंसा द्वारा शान्ति की स्थापना करने वाले तीर्थंकरों के कीति स्तंभस्वरूप अथवा उनके संदेश वाहक जिन मन्दिर तथा उनके उपदेशों का प्रचार करने वाले दीक्षाधारी साधु यदि जगत में प्रचारित हो जाय तो, कितना अच्छ! हो। तब तो असंख्य प्राणियों के रक्त से रंजित यह भूमि स्वर्ग के समान हो जाय । सभी मनुष्य और प्राणीमात्र भाई-भाई के समान प्रेमपूर्वक रहने लगें। उन्होंने ऐसे विचार करते-करते यह प्रतिज्ञा ले कि आज से नित्य प्रति कम से कम एक जैन मन्दिर के बनाने या मरम्मत होने की खबर सुने बिना भोजन नहीं करूंगा। उन्होंने देश-देशान्तरों में जैन मन्दिर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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