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महाराजा संप्रति ] में भेजा। वहाँ जाकर उन्होंने जैनधर्म का खूब प्रचार किया। जगह जगह चट्टानों-शिलाओं पर जैन धर्म की आज्ञायें खुदवादी और जगहजगह अहिंसा की घोषणा करवादी। इससे धर्म प्रचार में किसी प्रकार की भी कठिनाई नहीं रही।
इस प्रकार राजा संप्रति ने भारत में और भारत के बाहर जैनधर्म का खूब प्रचार किया। कहते हैं कि उन्होंने सवालाख नवीन जैन मन्दिर बनाए । ३६००० मन्दिरों की मरम्मत की। ६५०००६ पीतल आदि) प्रतिमायें बनवाई। देश देशान्तरों में जैन धर्म का प्रचार कराया। कहा जाता है - उस समय जैनों की संख्या ४० करोड़ हो गई थी।
वे यद्यपि साधु न हो सके, तथापि अपनी पूरी शक्ति से आंशिक संयम व्रत ( श्रावक धर्म ) का पालन करते थे। इस प्रकार श्रावक जीवन बिताते हुए उन्होंने देह त्याग किया।
आज भी लोग मानते हैं कि शत्रुञ्जय, गिरनार, नाडोल आदि बहुत से स्थानों के मन्दिर, उन्हीं के बनवाये हुए हैं । महाराजा संप्रति की बनाई हुई मूर्तियों की चर्चा तो स्थान स्थान पर मिलती है। मेवाड़ से बूंदी को जाने वाले रास्ते में एक किला भी इन्हीं का बनाया हुआ बतलाया जाता है। बहुतों का यह भी कहना है कि महाराजा अशोक के नाम से प्रसिद्ध शिलालेख ( सब या कुछ ) भी इन्हीं के खुदवाये हुए हैं। . महाराजा संप्रति का जितना गुणगान किया जाय, उतना ही पोड़ा है। संसार में शान्ति और प्रेम की स्थापना करने वाले जैनधर्म का प्रचार करने के लिये ऐसे महापुरुष जितने ही अधिक हों, इतना ही अच्छा है।
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