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समय तो यथासम्भव प्रभुजी के और स्तुति कर्ता के बीचमेंसे कोई गुजरे नहीं ऐसा प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि मनुष्योंके बीचमें आ जानेसे अविच्छिन्न दृष्टि में एवं ध्यानमें अन्तराय पड़ जाती है। ___ (११) अक्षत (चावल ) का स्वस्तिक (साथिया) चार गति का अन्तसूचक है। तीन ढगले ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप रत्नत्रयी के
आराधन का सूचक है और इसके बाद सिद्धशिला की आकृति उस स्थान के प्राप्ति की परम इच्छा सूचक है। यह आकृति कैसी होनी चाहिये ? यह जानने योग्य है। इसी ही प्रसंग में अक्षत का अष्टमांगलिक भी बनाने में आता है अथवा नंदावत भी किया जाता है, इसमें
नोट:-रिक्तपाणिनं पश्येतु, राजानं देवतं गुरुम् । नैमित्तिक विशेषेण, फलेन फलमादिशेत् ॥ भावार्थ:-राजा, देव, गुरू और नैमेत्तिक (ज्योतिषी) के समोप खाला हाय नहीं जाना चाहिये कुछ न कुछ फल लेकर जाना चाहिए क्योंकि फल से फल की प्राप्ति होती है।
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