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( ७५ ) ऊपर बैठकर कुछ उष्ण जल से समस्त शरीर साफ हो जाय, ऐसे ढंगसे हाथोंसे मल कर परिमित जलसे स्नान करनी चाहिये। उस समय केश, कंठ, कपाल, बगल, कंधा, काछ
ना पवित्र भवेच्छीर्ष, नित्यं वस्त्रण वेष्टितम् । मप्यात्मनः स्थिते स त्व निर्मल धु ति धारिणः ॥७॥ स्नानायेति जलोत्सर्गादनंति जन्तून् बहिर्मुखान् । मलिनं कुर्वते जीवं, शोधयंति वपुहिँ ते ॥८॥ विहाय पोतकं वस्त्र, परिधाय जिनं स्मरन् । यावजलाद्रौं चरणो, तावत्तत्रावतिष्ठते ॥६॥ अन्यथा मल संश्लेषाद पबित्रौ पुन. पदो।
तलोन जीव घातेन, भवेद्वा पातकं महत् ॥१०॥ श्लोकार्थ :-दूसरे प्रहरमें श्रावक अपने घरमें जीव रहित भूमि पर पूर्व दिशा में मुख करके स्नान करे। अच्छी नलीवाला बाजोठ (पाटा) इस ढंग का बनवावे कि जिसमें उष्ण पाणी रहनेसे जीव की हिंसा न हो। ऐसे बाजोठ पर बैठकर स्नान करे । रजस्वला स्त्री अथवा चंडाल का स्पर्श हुआ हो या घरमें सुतक हो या
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