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संयुक्त हैं। ऐसे परमात्मा की भक्ति बंदन, नमन, पूजन और स्तवनादि से होती है और ऐसा करनेका प्रथम कारण यह है कि उपकारी का उपकार मानना यही कृतज्ञता है। उपकार मानने ही से यह कहा जा सकता है कि यथाशक्ति भक्ति करनेमें सामर्थ प्राप्त होगी। दूसरा कारण यह है कि वे शुद्ध मार्गोपदेशक थे। यह आत्मा अशुद्ध मार्गोपदेशक के बताये हुए मार्गमें चलने ही से आज तक संसारमें परिभ्रमण कर रहा है। जो स्वयं ही शुद्ध मार्गको नहीं पा सके वे दूसरोंको शुद्ध मार्ग कैसे बतला सकते हैं ? लौकिक देव और लौकिक गुरु स्वयं शुद्ध मार्ग की अनभिज्ञता से (नहीं जाननेसे) अभी तक संसारमें भटक रहे हैं वे यदि शुद्ध मार्ग के ज्ञान का दावा करें, तो यह उनका मिथ्याभिमान है। जब तक रोगद्वष का सर्वथा क्षय नहीं होता अर्थात् जब तक वीतरागपन को प्राप्ति नहीं होती तब तक शुद्ध मार्ग बताया
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