________________
( ६४ ) मन्दिरजी के अन्दर तो सिर्फ धर्म चर्चा करनी हो तो या नवकारादि मंत्र का जाप करना हो या विधि युक्त देव बंदन करना हो या पूजा भणानी हो अथवा किसी प्रशस्त हेतु ही से बैठना या ठहरना उचित है अन्यथा निरर्थक अधिक समय तक ठहरने से औदारिक देह से और भी कोई आशातना हो जोनी सम्भव है।
(१६) पूजा पढ़ाने के लिए बहुत से भाई अपना समय खर्च करते हैं, पर उसमें पहिले तो खुले मुंह बोलनेसे पूजा की पुस्तक पर तथा मन्दिरजीमें थूक पड़ जानेसे और मुंहकी दुर्गन्ध फैलनेसे आशातना होती है। देरासरके अन्दर प्रवेश करनेकी समयसे लेकर निकलने की बख्त तक उघाड़े मुंह से बोलना हो निषिद्ध है। अष्ट पुट मुखकोश और उत्तरासन का किनारा इसी ही के लिये है किन्तु इस तरफ बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता है। पुनः स्वयं क्या बोल रहे हैं। इसके अर्थ की विचारण नहीं
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org