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( ६३ ) करना भक्तिके नाम पर आशातना करना है जयणा बिना की करणी कभी फलदायक नहीं होती है।
(१४) महोत्सवादिके प्रसंग पर वर घोड़ा (जल-यात्रा) निकाला जाता है, उस समय जिन बिम्ब का अत्यन्त सन्मान होना चाहिए, किन्तु वैसा नहीं होता है। इससे भक्ति नहीं होती
और आशातना लगती है। यह प्राचीन जमाने में निकलनेवाली रथ-यात्रा का अनुकरण है। वह रथ-यात्रा किस रोतिसे सन्मान के साथ निकाली जाती थी इसका शास्त्रोक्त वर्णन पढ़ लेना चाहिये जिससे विदित हो जायगा कि हम लोग इस यात्रा के प्रति कितना अल्पादर करते हैं।
(१५) जिन मन्दिर के भीतर बैठकर कहीं २ ऐसी विकथाएँ और निन्दाएँ करनेमें आती है कि जो सुज्ञ पुरुष के चित्तमें खटके बिना नहीं रहती। यह तो प्रत्यक्ष आशातना है।
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