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________________ ( ६० ) देना चाहिये और धूप दान (धूपीया ) हो वहां तो उसी से धूप करना चाहिये । (१०) दीप पूजा करनेवाले मन्दिर के द्रव्यसे खरीदे हुए घृत को तैयार देख कर तथा उस घो से भरा हुआ दीपक तैयार पाकर आरती करने लग जाते हैं । परन्तु यह ख्याल रहे कि अगरबत्ती वगैरह धूप तो साधारण खाते का होता है मगर यह घृत (घी) उस खातेका नहीं होता है । विशुद्धि के प्रेमी श्रावक अपने घर के घी से दीपक करके आरती करते हैं। यहां तक कि वे लोग मन्दिरजीका एक सूत भी उपयोग नहीं करते हैं । (११) इसके अनन्तर प्रभुजी के सामने गर्भ गृह के बाहिर बैठ कर अक्षत, फल और नैवेद्य ये ३ तीन पूजाएं एक साथ की जाती है । इसमें जिस प्रकार के विवेककी आवश्यक्ता होती है, वह ध्यान में नहीं रहता । पूजा करने वाले मुंह से बोलते हैं कि "अक्षत शुद्ध अखंड Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003826
Book TitleJinraj Bhakti Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDanmal Shankardan Nahta
PublisherDanmal Shankardan Nahta
Publication Year
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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