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( ५८ ) है, जिनाज्ञा का भङ्ग है, जीवोंकी विराधना है
और दयोल कहलाने वाले श्रावकों के सर्वथा त्यागने योग्य प्रवृत्ति है। बहुतसेभोले, भक्तिवान भाइयोंके हृदयमें अभी तक यह बात स्थान नहीं पाती। इसीलिये सिद्धाचलादि तीर्थ स्थानों में उन लोगों ने इन बातोंको हद से ज्यादा बढ़ा दिया है, किन्तु ऐसा करना बिल्कुल अयोग्य है। श्राद्ध-विधि वगैरह अनेक ग्रन्थोंमें पुष्प चार प्रकार से चढ़ाने का कहा गया है, उसमें साफ तौरसे पुष्पों को गूंथ कर के हार बनाने का विधान है। इसके विषय में और भी जितना चाहे, जान सकते हैं यहां अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। परन्तु यह भक्तिके नामसे होनेवाली आशातना को बिलकुल ही रोक देना चाहिये। आशा है, सुज्ञ जैन-बन्धु इस पर विशेष ध्यान देकर ऐसी आशातनाओं से हर समय दूर रहेंगे।
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