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को दृष्टि से अच्छी तरह देख लेना चाहिये और फिर खंखेर कर बादमें अल्प जलसे फंवारे की तरह रुचि अनुसार छांटना चाहिए। पुष्पोंको हर समय धोनेकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि इससे उनकी विराधना होती है और इतना ही नहीं पर इसके अन्दर रहे हुए त्रस जीवोंकी, जो अपनी दृष्टिमें नहीं पड़े हों और खंखेरने से भी जो खिरे नहीं, ऐसे जीवोंकी (सूक्ष्मत्रस) विराधना होती है। और पुष्प तो जाति ही से पवित्र है इनको पानीसे पवित्र करनेकी जरूरत नहीं रहती। ऐसे छटे पुष्प खूब विवेक सहित शोभनीक मालम हो उस ढंगसे जिनबिम्ब पर चढ़ाना चाहिए इसमें जो कुछ भी अनुपयोग किया जायगा उसीका नाम आशातना है। पुष्पो के हारके सम्बन्धमें तो प्रधानतया विचार करने की जरूरत है। पुष्पों में सुई घुसा कर जो हार बनाये जाते हैं, वे तो सर्वथा ही चढ़ाने के लायक नहीं हैं। इसमें तो प्रत्यक्ष पाशातना
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