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इसके सम्बन्धमें यदि और भी अधिक खात्री चाहते हैं तो किसो समय ऐसी बालकुंची का अपने शरीर पर प्रयोग कर देखना चाहिये कि जिससे इस हकीकत की खात्री स्वयमेव हो जायगो एवं बालकुंचो उपकारके बदले अपकार अधिक करती है यह बात अच्छी तरह समझमें आ जायगी।
(६) प्रक्षालन (पावाल) करनेके पश्चात अंग लुहण करने में आता है। कितने ही स्थानों में तो अंगलहणे उत्तम, स्वच्छ, नरम और उज्वल देखने में आते हैं। किन्तु कितने ही ग्रामों और शहरोंमें फटे हुए, मैले, सड़े हुए और बिलकुल छोटे अंगलुहणे काममें लाये जाते है जो प्रभु जी की भक्ति के बदले आशातना का कारण रूप हो जाते हैं। यदि हरेक अच्छी स्थितिवाला पुरुष साल भरमें २ (दो) अंगलुहणो मन्दिरजी भेंट करता रहे तो ऐसी स्थिति कभी पैदा न होवे। मन्दिरजों के संरक्षक (बहोव:) यदि
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