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( ४२ ) से प्राचीन मन्दिर तीर्थ कहा जाता है उसकी आशातना विशेष रुपसे बर्जे ।
कहा भी है :तीरथनी आशातना नवि करिये, नवि करिये रे नवि करिये। धूप ध्यान घटा अनुसरिये, तरिये संसार ॥ ती० ॥१॥ आशातना करता थकाधन हाणी, भुखा न मले भन्न पाणि । काया बली रोगे भराणी, आभव मां जेम । ती० ॥२॥ परभव परमाधामी ने वश पड़शे, वैतरणी नदी में रुलशे । अग्नि ने कुढ़े बलशे, नहीं सरणु कोय ॥ तीन ॥ ३ ॥
(नवाणू प्रकारी पूजा वीर यिजयजी) १२ इस प्रकार तथा और भी सूत्रोक्त विधि सहित कार्य करनेसे पूर्णफलकी प्राप्ति होती है अविधिसे क्रिया करना ठीक नहीं। कहा भी है:-"अविधि थी क्रिया करी नवि छुटे भवनो लारो रे” इत्यादि। इसलिये प्रत्येक धर्मकार्य जो किया जाय उसका हेत, विधि, परमार्थे सद्गुरुसे व योग्य जानकार, मनुष्योंको पूछ कर विधि सहित करनेका प्रयत्न करना चाहिये। कारण जिस प्रकार औषधि लेने पर भी पथ्य
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